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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २७८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार पर आठ हजार श्लोकों में अष्टसहस्री नाम की टीका बनाई है, उसी देवागम अष्टशती पर श्री विद्यानंदि जी ने आठ सौ श्लोकों में अष्टसहस्त्री नाम की टीका बनाई है, जिसमें सोलह हजार टिप्पणी हैं। श्री विद्यानंदि स्वामी ने आप्त की परीक्षा रूप तीन हजार श्लोकों में आप्तपरीक्षा नाम का ग्रन्थ बनाया है। श्रीमाणिक्यनंदि आचार्य ने परिक्षामुख ग्रन्थ बनाया है। परीक्षामुख की बड़ी टीका भी श्री प्रभाचंद्र आचार्य ने बारह हजार श्लोकों में प्रमेयकमलमार्तण्ड नाम से बनाई है। उसी की छोटी टीका श्री अनन्तवीर्य आचार्य ने प्रमेयचंद्रिका नाम से बनाई है। श्री अकलंकदेव आचार्य ने लघत्रयी नाम का ग्रन्थ बनाया है। उस पर श्री प्रभाचंद्र आचार्य ने सोलह हजार श्लोकों में न्यायकुमुदचन्द्रोदय नाम का ग्रन्थ बनाया है। तथा और भी न्याय के कई ग्रंथ प्रमाणपरीक्षा, प्रमाणनिर्णय, प्रमाणमीमांसा, बालावबोधिनी न्यायदीपिका इत्यादि जिनधर्म के स्तंभ, प्रमाण से द्रव्यों के निर्णय करानेवाले अनेकान्त से भरे हुए द्रव्यानुयोग के ग्रन्थ जयवन्त प्रवर्तते हैं। करणानुयोग के गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकसारादि अनेक ग्रन्थ है। चरणानुयोग के मूलाचार, आचारसार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, भगवती आराधना, स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा, आत्मानुशासन, पद्मनन्दि पञ्चविंशति, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, ज्ञानार्णव इत्यादि अनेक गंथ हैं। जिनेन्द्र व्याकरण अनेकान्त से भरा हुआ है। प्रथमानुयोग के श्री जिनसेनाचार्य कृत आदिपुराण, श्री गुणभद्राचार्यकृत उत्तरपुराण इत्यादि जिनेन्द्र के परमागम के अनुसार उपदेशीग्रंथ तथा पुराण, चरित्र, आचार के निरूपक अनेक ग्रन्थ हैं; उनको बड़ी भक्ति से पठन करना, श्रवण करना, व्याख्यान करना, वंदना करना, लिखना शोधना, वह सब प्रवचन भक्ति है। मेरा शास्त्र के अभ्यास में जो दिन जाता है, वह धन्य है। परमागम के अभ्यास बिना हमारा जो समय जाता है, वह वृथा है। स्वाध्याय बिना ध्यान नहीं होता है। शास्त्र के अभ्यास बिना पाप से नहीं छूटता है, कषायों की मंदता नहीं होती है। शास्त्र के सेवन बिना संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य उत्पन्न नहीं होता है। समस्त व्यवहार की उज्ज्वलता व परमार्थ का विचार आगम के सेवन से ही होता है। श्रुत के सेवन से जगत में मान्यता, उच्चता, उज्ज्वल यश, आदर सत्कार प्राप्त होता है। सम्यग्ज्ञान ही परम बांधव है, उत्कृष्ट धन है, परममित्र है। सम्यग्ज्ञान अविनाशी धन है। स्वदेश में, परदेश में, सुख अवस्था में, दुःख अवस्था में, आपदा में, सम्पदा में परम शरणभूत सम्यग्ज्ञान ही है। स्वाधीन अविनाशी धन ज्ञान ही है। ___ इसलिये शास्त्रों के अर्थ का ही सेवन करो, अपनी आत्मा को नित्य ज्ञान दान ही करो, अपनी संतान को तथा शिष्यों को ज्ञान दान ही करो। ज्ञानदान देने के समान करोड़ धन का दान भी नहीं है। धन तो मद उत्पन्न करता है, विषयों में उलझाता है, दुर्ध्यान कराता हैं, संसाररूप अंधकूप में डुबोता है, अतः ज्ञान दान समान अन्य दान नहीं है। श्लोक, एक पद, मात्रा का भी अभ्यास करता है वह शास्त्रों के अर्थ का पारगामी हो जाता है। विद्या ही परम देवता है। जो माता-पिता ज्ञानाभ्यास कराते हैं उन्होंने Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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