________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
[२७७
अर्थ को विस्मरण नहीं करते हुए, भगवान के द्वारा कहे गये अर्थ को धारण कर द्वादशांग रूप रचना रची है। ___जब चतुर्थ काल के तीनवर्ष आठ माह पंद्रह दिन बाकी रह गये थे, तब श्रीवर्धमान स्वामी निर्वाण को प्राप्त हुए। पश्चात् बासठ वर्ष तक गौतम स्वामी , सुधर्माचार्य, जम्बूस्वामी – इन तीन केवलियों ने केवलज्ञान के द्वारा समस्त प्ररूपणा की।
उसके बाद केवलज्ञान होने का अभाव हो गया। उसके बाद क्रम से विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन, भद्रबाहु-ये पाँच मुनि द्वादशांग के धारक श्रुतकेवली हुए। उनका समय क्रम से कुल एक सौ वर्ष का रहा। उनके समय में केवली भगवान के समान ही पदार्थों का ज्ञान और प्ररूपणा रही।
उसके बाद विशाखाचार्य, प्रोष्ठिलाचार्य, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषण, विजय , बुद्धिमान, गंगदेव, धर्मसेन - ये ग्यारह परम निर्ग्रन्थ मुनीश्वर दश पूर्वो के धारी क्रम से कुल एक सौ तेरासी वर्ष में हुए। उन्होंने भी यथावत् प्ररूपणा की।
उसके बाद नक्षत्र, जयपाल, पांडुनाम, ध्रुवसेन, कंसाचार्य – ये पाँच महामुनि ग्यारह अंग के ज्ञान के पारगामी अनुक्रम से दो सौ बीस वर्ष में हुए, उन्होंने भी यथावत् प्ररूपणा की। उसके बाद सुभद्र, यशोभद्र, महायश, लोहाचार्य – ये पांच महामुनि एक अंग ज्ञान के पारगामी अनुक्रम से एक सौ अठारह वर्ष में हुए।
इस प्रकार भगवान महावीर जिनेन्द्र के निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् छह सौ तेरासी वर्ष तक अंगों का ज्ञान रहा। उसके पश्चात् इस काल के निमित्त से बुद्धि, वीर्य, आदि की मंदता होते जाने पर श्री कुंदकुंद आदि अनेक निर्ग्रन्थ वीतरागी मुनि अंग की वस्तुओं के ज्ञानी हुए। उन्हीं की परंपरा में श्री उमास्वामी हुए। ऐसे पाप से भयभीत, ज्ञानविज्ञान सम्पन्न, परमसंयम गुण मंडित, गुरुओं की परिपाटी से श्रुत के अव्युच्छिन्न अर्थ के धारक वीतरागियों की परंपरा चली आई।
उनमें श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पञ्चास्तिकाय, अष्टपाहुड़ आदि से लगाकर अनेक ग्रंथ बनाये हैं जो आज प्रत्यक्ष पढ़े जा रहे हैं। इन ग्रन्थों की विनयपूर्वक आराधना करना, वह प्रवचन भक्ति है। ___ श्री उमा स्वामी ने दश अध्यायों में तत्त्वार्थ सूत्र बनाया है। उस तत्त्वार्थसूत्र के ऊपर श्री पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि नाम की टीका बनाई है। तत्त्वार्थसूत्र पर ही श्री अकलंकदेव ने सोलह हजार श्लोकों में राजवार्तिक टीका बनाई है; एवं श्री विद्यानन्दि स्वामी ने बीस हजार श्लोकों में श्लोकवार्तिक टीका बनाई है; तथा श्री समन्तभद्र स्वामी ने चौरासी हजार श्लोकों में गंधहस्ति-महाभाष्य नाम की बड़ी टीका बनाई थी, जो आज इस समय में उपलब्ध नहीं होती है।
गंधहस्ति महाभाष्य के प्रारंभ के मंगलाचरण पर श्री समन्तभद्र स्वामी ने एक सौ पंद्रह श्लोकों में देवागम स्तोत्र बनाया है, उसे आप्त मीमांसा भी कहते हैं। श्री अकलंक देव ने देवागम स्तोत्र
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com