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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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मानों करोड़ों का धन दिया है। जो सम्यग्ज्ञान के दाता गुरु हैं उनके उपकार के समान तीन लोक में कोई दूसरा उपकार नहीं है। जो ज्ञान के देनेवाले गुरु के उपकार का लोप करता है, उसके समान कृतघ्नी दूसरा नहीं है, पापी नहीं है। ज्ञान के अभ्यास बिना व्यवहारपरमार्थ दोनों में मूढ़ है, अतः प्रवचन भक्ति ही परम कल्याण है। प्रवचन के सेवन बिना मनुष्य पशु समान है। यह प्रवचनभक्ति हजारों दोषों का नाश करनेवाली हैं। इस भक्ति का भक्तिपूर्वक अर्घ उतारण करो। इसी से सम्यग्दर्शन की उज्ज्वलता होती है। इस प्रकार प्रवचनभक्ति भावना का वर्णन किया ।१३।
आवश्यकापरिहाणि भावना अब आवश्यक परिहाणि नाम की चौदहवीं भावना का वर्णन करते हैं। जो अवश्य करने योग्य है उसे आवश्यक कहते हैं। आवश्यकों की हानि नहीं करने का चिंतवन वह आवश्यकापरिहाणि नाम की भावना है। अथवा जो इंद्रियों के वश नहीं होता उसे अवश्य कहते हैं। अवश्य जो मुनि उनकी क्रिया को आवश्यक कहते हैं। आवश्यकों की हानि नहीं करना उसे आवश्यकापरिहाणि भावना कहते हैं।
आवश्यकों के छह भेद हैं :- सामायिक, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक है, उनका वर्णन करते हैं।
सामायिक : देह से भिन्न, ज्ञानमय ही जिसकी देह हैं, ऐसे परमात्म स्वरूप, कर्म रहित चैतन्यमात्र शुद्ध जीव का एकाग्रतापूर्वक ध्यान करनेवाले मुनि सर्वोत्कृष्ट निर्वाण को प्राप्त होते हैं। निर्विकल्प शुद्ध-आत्मा के गुणों में जिनका मन स्थिर नहीं होता है ऐसे तपस्वी मुनि छह आवश्यक क्रियाओं को अच्छी तरह अंगीकार करें तथा आते हुए अशुभ कर्मों के आस्रव को रोंके, टालें।
प्रथम तो सुन्दर-असुन्दर वस्तु में, तथा शुभ-अशुभ कर्म के उदय में रागद्वेष नहीं करो। आहार-वसतिकादि के लाभ-अलाभ में समभाव करो। स्तुति-निंदा में, आदर-अनादर में, पाषाण-रत्न में, जीवन-मरण में, शत्रु-मित्र में, सुख-दुःख में, श्मशान महल में, राग-द्वेष रहित परिणाम समभाव है। जो साम्यभाव के धारक हैं वे बाह्य पुदगलों को अचेतन व अपने से भिन्न तथा अपने आत्म स्वभाव में हानि-वृद्धि के अकर्ता जानकर रागद्वेष करना छोड़ देते हैं; तथा अपने को शुद्ध , ज्ञाता-दृष्टारूप अनुभव करते हुए राग-द्वेषादि विकार रहित रहते हैं उनके साम्यभाव होता है, वही सामायिक है।१।।
स्तवन : भगवान जिनेन्द्र का अनेक नामों के द्वारा स्तवन करना वह स्तवन नाम का आवश्यक है। आपने कर्मरूप शत्रुओं को जीता है अतः आपका नाम जिन है। आपको किसी ने बनाया नहीं है तथा आप स्वयं ही अपने स्वरूप में रहते हैं अत: स्वयंभू हैं। आप केवलज्ञानरूप नेत्रद्वारा त्रिकालवर्ती पदार्थों को जानते हो अतः आप त्रिलोचन हो। अपने मोहरूप अन्धासुर को मार दिया है अतः आप अन्धकान्तक हो। आपने पाठ कर्मों में से चार घातिया कर्मोंरूप आधे बैरियों का नाश करके ही अद्वितीय ईश्वरपना पाया है अत: आप अर्द्धनारीश्वर है। आप शिव पद अर्थात् निर्वाण पद में विराजमान
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