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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार २७४] ___ कल्प्याकल्प्य प्रकीर्णक में साधु को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा क्या योग्य है, क्या अयोग्य है ऐसा भेदरूप वर्णन है ।१०। ___ महाकल्प प्रकीर्णक में जिन कल्पी उत्कृष्ट संहनन सहित महामुनियों के योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के प्रभाव से उत्कृष्ट चर्या से वर्तते प्रतिमा योग, आतापन योग, त्रिकालयोग (वृक्ष तल ) आदि का आचरण, तथा स्थविरकल्पी साधुओं की दीक्षा, शिक्षा, संघ का पोषण, यथायोग्य शरीर का समाधान, आत्म-संस्कार, सल्लेखना तथा उत्तमार्थ को प्राप्त उत्तम आराधना का वर्णन है ।।११।। पुण्डरीक प्रकीर्णक में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी देवों में उत्पत्ति का कारण दान, पूजा, तपश्चरण, अकाम निर्जरा, सम्यक्त्व , संयम आदि का वर्णन तथा उनके उपजने के स्थान का वैभव आदि का वर्णन है। १२।। महापुण्डरीक प्रकीर्णक में महर्द्धिक देवों में जो इन्द्र, प्रतीन्द्र, अहमिन्द्र आदि में उत्पत्ति के कारण तप विशेष आदि का वर्णन है ।१३। निषिद्धिका प्रकीर्णक में प्रमाद से उत्पन्न दोषों का त्याग करके विशुद्धता के लिये अनेक प्रकार के प्रायश्चित का वर्णन है, ऐसा प्रायश्चित शास्त्र है ।१४। ऐसे द्वादशांग शास्त्र का ज्ञान तप के प्रभाव से होता है। जो आप स्वयं पढ़ते हैं तथा अन्य बुद्धिमान शिष्यों को पढ़ाते हैं, उन बहुश्रुतों की भक्ति संसार परिभ्रमण का नाश करने वाली है। शास्त्रों की भक्ति भी बहुश्रुतभक्ति है। गुणों में अनुराग करना, वह भक्ति है। जो शास्त्रों में अनुराग करके पढ़ते हैं, शास्त्र के अर्थ को अन्य को बतलाते हैं, धन खर्च करके शास्त्रों को लिखाते हैं (छपाते हैं)। अपने हाथ से शास्त्र लिखते हैं, अक्षरों की हीनता, अधिकता, मात्रा आदि का शोधन करते हैं, पढ़नेवालों को शास्त्र उपलब्ध करा देते हैं, व्याख्यान करते हैं, व्याख्यान कराते हैं, पढ़ानेवालों-वाँचनेवालों की आजीविका की स्थिरता करके शास्त्रों के ज्ञानाभ्यास का प्रवर्तन कराते हैं, स्वाध्याय करने के लिये निराकुल स्थान देते हैं, वह ज्ञानावरण कर्म का नाश करनेवाली बहुश्रुतभक्ति है। शास्त्रों को बहुमूल्य वस्त्रों में पुट्ठा लगाकर कपड़ा सहित डोरी से इस प्रकार बांधना, जिससे देखने-सुनने-पढ़ने वालों का मन प्रसन्न हो जाये, वह सब बहुश्रुतभक्ति है। स्वर्ण से मनोहर घढ़े हुए तथा पाँच प्रकार के रत्नों से जड़ित, सैकड़ो फूलों से शास्त्र की सारभूत पूजा करना, ऐसी श्रुतभक्ति संशय आदि रहित सम्यग्ज्ञान उत्पन्न कराकर क्रम से केवलज्ञान प्रकट करा देती है। जो पुरुष अपने मन को इंद्रियों के विषयों से रोककर बारम्बार श्रुतदेवता (जिनवाणी) के गुणों का स्मरण करके भली प्रकार से बनाये पवित्र अर्घ के द्वारा श्रुतदेवता की पूजा करता है, वह समस्त श्रुत का पारगामी होकर केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त करता है। इस प्रकार बहुश्रुतभक्ति नाम की बारहवीं भावना का वर्णन किया, जिसे निरन्तर भावो ।१२। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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