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आदि की कलाकारी तथा धातुवाद, रसवाद, खनिज आदि की चतुराई पूर्वक रचना करने का वर्णन है । ५ ।
यहाँ ऐसा विशेष जानना समस्त द्वादशांग के एक कम एकट्ठी ही के बराबर अक्षर हैं १८४४६४४०७३७०९५५१६९५ इतने अपुनरुक्त अक्षर हैं । ( ६५५३६ x ६५५३६ X ६५५३६ X ६५५३६ एकट्ठी तथा २ X ८ × ८ × ८ × ८ × ८ = पण्णट्ठी ६५५३६ ) । जो एक बार आने के बाद दूसरी बार नहीं आता है उसे अपुनरुक्त अक्षर कहते हैं। इनमें चौंसठ संयोग तक के अक्षर हैं । आगम में कहे मध्यम पद में सोलह सौ चौंतीस करोड़ तेरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी १६३४८३०७८८८ अपुनरुक्त अक्षर हैं। इन अक्षरों में प्रमाण का भाग देने पर एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अठावन हजार पाँच पद आये उनमें समस्त द्वादशांग है ११२,८३,५८,००५ । शेष अक्षर आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर ८०९०८१७५ अंक रहे। इन अक्षरों का पूर्ण एक पद नहीं होता इसलिये इन्हें अंग बाह्य कहा है। उन अंक रहे। इन अक्षरों का पूर्ण एक पद नहीं होता इसलिये इन्हें अंग बाह्य कहा है। उन अक्षरों के सामायिक आदि चौदह प्रकीर्णक हैं।
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प्रकीर्णक : सामायिक प्रकीर्णक में मिथ्यात्व, कषायादि के क्लेश के अभावरूप नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के भेद से छः भेद रूप सामायिक का वर्णन है । १ ।
स्तवन प्रकीर्णक मे चौंतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य, परम औदारिक दिव्य देह, समोशरण सभा धर्मोपदेश आदि तीर्थंकरों के माहात्म्य का प्रकाशरूप वर्णन है ।२।
वंदना प्रकीर्णक में एक तीर्थंकर के आलंबनरूप चैत्यालय प्रतिमा का स्तवन रूप वर्णन
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प्रतिक्रमण प्रकीर्णक में प्रमाद जनित पूर्वकृत दोषों का निराकरण करने का वर्णन है। उसके सात भेद हैं दैनिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक( वार्षिक ), ऐर्यापथिक, उत्तमार्थ ( मरण के समय ) |४|
विनय प्रकीर्णक में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा उपचार स्वरूप पाँच प्रकार की विनय का वर्णन है । ५ ।
कृतिकर्म प्रकीर्णक में नव देवताओं अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिन प्रतिमा, जिनमंदिर, जिनागम, जिनधर्म की वंदना के लिये, तीन प्रदक्षिणा, चार शिरोनति, तीन शुद्धि, दो नमस्कार, बारह आवर्त, इत्यादि नित्य-नैमात्तिक क्रिया का वर्णन है।६।
दश वैकालिक प्रकीर्णक में साधु के आचार तथा आहार की शुद्धि का दश विशेष कालों से संबंधित वर्णन है ।७।
उत्तराध्ययन प्रकीर्णक में चार प्रकार के उपसर्ग तथा बाईस परीषहों के सहने का विधान उनका फल तथा उनसे संबंधिक प्रश्नों के उत्तर का वर्णन है ।८।
कल्प व्यवहार प्रकीर्णक में साधु के योग्य आचरण का विधान, अयोग्य के सेवन का प्रायश्चित का वर्णन है । ९ ।
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