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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार कैसे होते हैं अवपीड़क आचार्य ? जो बलवान हो, उपसर्ग - परीषह आने पर कायर नहीं हो, प्रतापवान हो, जिसका वचन उल्लंघन करने में कोई समर्थ नहीं हो। प्रभाववान हो, जिसे देखने के साथ ही दोष का धारक साधु कांपने लगे, जिसे बड़े-बड़े विद्या के धारक झुककर वंदना करते हों, जिसकी उज्ज्वल कीर्ति विख्यात होती है, जिसकी प्रसंशा सुनते ही उसके गुणों में दृढ़ श्रद्धा हो जाती हो, जिसके वचन जगत में देखे बिना ही दूर देशों में प्रमाण माने जाते हों, सिंह के समान निर्भय हो। ऐसा अवपीड़कगुण का धारक गुरु जिस प्रकार शिष्य का हित हो उस प्रकार से उपकार करता है । जैसे बालक का हित विचारनेवाली माता रोते हुये बालक को भी दाबकर मुंह खोलकर जबरदस्ती घृत, दुग्ध, औषधि आदि पिलाती है, उसी प्रकार शिष्य का हित विचारने वाले आचार्य भी माया शल्यसहित - शिष्यमुनि का जबरदस्ती दोष दूर करते हैं, अथवा कटुक औषधि के समान पश्चात् हित करते हैं। जो जिह्वा से मीठा बोले किन्तु शिष्य को दोषों से नहीं छुड़ावे, वह गुरु भला नहीं है। जो वचन से ताड़ना देकर भी दोषों से छुड़ाता है, वह गुरु पूजने योग्य है । अतः अवपीड़कगुण का धारक ही आचार्य होता है । ६ । अपरिस्त्रावी : अब अपरिस्त्रावी गुण कहते हैं। शिष्य जिस दोष की गुरु से आलोचना करता है, गुरु उस दोष को किसी दूसरे को नहीं बतलाते हैं । जैसे तपाये हुए लोहे के द्वारा पिया हुआ जल बाहर नहीं निकलता है, उसी प्रकार शिष्य से सुने हुए दोष को आचार्य किसी दूसरे को नहीं बताते हैं वह अपरिस्त्रावी गुण है। शिष्य तो गुरु का विश्वास करके कहता है, किन्तु यदि गुरु शिष्य का दोष प्रकट कर देता है, दूसरों को बता देता है तो वह गुरु नहीं है, अधम है, विश्वासघाती हे। २६८] -— कोई शिष्य अपने दोष को गुरु के द्वारा प्रकट किया गया जानकर दुःखी होकर आत्मघात कर लेता है, कोई क्रोध में आकर रत्नत्रय का त्याग कर देता है, कोई गुरु की दुष्टता जानकर अन्य संघ में चला जाता है । 'जैसे मेरी अवज्ञा की है वैसे ही तुम्हारी भी अवज्ञा करूँगा' इस प्रकार समस्त संघ में प्रकट घोषणा कर देता है, जिससे समस्त संघ का आचार्य पर से विश्वास उठ जाता है, आचार्य सभी के त्याज्य हो जाता है इत्यादि बहुत दोष आते हैं। बहुत कहने से कथन बढ़ जायेगा, अतः अपरिस्त्रावी गुण का धारक ही आचार्य होना चाहिये ।७। निर्यापक : आचार्य को निर्यापक गुणधारी होना चाहिये। जैसे खेवटिया समस्त बाधाओं को टालकर नाव को पार उतार ले जाता है उसी प्रकार आचार्य भी शिष्यों को अनेक विघ्नों से बचाकर संसार समुद्र से पार करा देता है ॥८ ॥ इस प्रकार आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान, प्रकर्ता, अपायोपायविदर्शी, अवपीड़क, अपरिस्रावी, निर्यापक आचार्य के इन आठ गुणों को धारण करनेवालों के गुणों में अनुराग करना वह आचार्य भक्ति है । ऐसे आचार्यों के गुणों को स्मरण करके आचार्यों का स्तवन वंदन करके अर्घ उतारण जो पुरुष करता है, वह पापरूप संसार की परिपाटी को नष्ट करके अक्षय सुख को प्राप्त करता है, ऐसा वीतरागी गुरु कहते हैं। इस प्रकार आचार्यभक्ति भावना का वर्णन किया । ११ । - Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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