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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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वह रत्नत्रय के नाश होने से कांपने लगे तथा रत्नत्रय के नाश से अपना नाश व नरकादि कुगति में पतन साक्षात् दिखाई देने लगे । रत्नत्रय की रक्षा से संसार से उद्धार होकर अनन्त सुख की प्राप्ति उपदेश द्वारा साक्षात् दिखला दें, ऐसा उपदेश देने की सामर्थ्य जिसमें हो वह अपायोपाय -विदर्शी का धारक आचार्य होता है। यहाँ उपदेश लिखने से कथन बहुत हो जायेगा, इसलिये नहीं लिखा है । ५ ।
अवपीड़क : अब अवपीड़क नाम का छठाँ गुण कहते हैं । कोई मुनि रत्नत्रय धारण करके भी लज्जा से, भय से, अभिमान, गौरव आदि से अपनी शुद्ध यथावत् आलोचना ( भूल स्वीकार करना) नहीं करता है तो आचार्य उसे स्नेह से भरी, कानों को मीठी, तथा हृदय में प्रवेश करने वाली शिक्षा देते हैं - हे मुने! बहुत दुर्लभ रत्नत्रय के लाभ को तुम मायाचारी द्वारा नष्ट नहीं करो। माता-पिता के समान अपने गुरूओं के पास अपना दोष प्रकट करने में क्या शर्म हैं? वात्सल्य धारी गुरु भी अपने शिष्य के दोष प्रकट करके शिष्य का तथा धर्म का अपवाद नहीं कराते हैं । अतः शल्य दूर करके आलोचना करो। जिस प्रकार रत्नत्रय की शुद्धता व तपश्चरण का निर्वाह होगा उसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव के अनुसार तुम्हें प्रायश्चित दिया जायेगा । अतः भय छोड़कर निर्दोष आलोचना करो ।
जो ऐसे स्नेहरूप वचनों द्वारा भी माया शल्य नहीं छोड़ता है, तो तेज के धारी आचार्य जबरदस्ती से शिष्य की शल्य को निकालते हैं। जिस समय आचार्य शिष्य से पूछते हैं कि 'हे मुने! क्या यह दोष ऐसा ही है, सत्य कहो ?' तब उनके तेज व तप के प्रभाव से, जैसे सिंह को देखते ही स्यार खाते हुए मांस को तत्काल उगल देता है, तथा जैसे महान प्रचण्ड तेजस्वी राजा अपराधी से पूँछता है तब उससे तत्काल सत्य कहते ही बनता है, उसी प्रकार शिष्य भी माया शल्य को निकाल देता है ।
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यदि शिष्य सत्य नहीं बोलकर अपना मायाचार नहीं छोड़ता है, तो गुरु तिरस्कार के वचन भी कहते हैं 'हे मुने! हमारे संघ से निकल जाओ, हमसे तुम्हारा क्या प्रयोजन है ? जो अपने शरीर का मैल धोना चाहेगा वह निर्मल जल से भरे सरोवर को प्राप्त करेगा, जो अपने महान रोग को दूर करना चाहेगा वह प्रवीण वैद्य को प्राप्त करेगा । उसी प्रकार जो रत्नत्रयरूप परमधर्म का अतिचार दूर करके उज्ज्वल करना चाहेगा वह गुरु का आश्रय लेगा। तुम्हें रत्नत्रय की शुद्धता करने में आदर नहीं है इसलिये यह मुनिपना, व्रतधारण करना, नग्न होकर क्षुधादि परीषह सहने की विडंबना द्वारा क्या साध्य है ? संवर - निर्जरा तो कषायों को जीतने से होती है, जब माया कषाय का ही त्याग नहीं किया तो व्रत, संयम, मौन धारण करना व्यर्थ है । मायाचारी का नग्न रहना और परीषह सहना व्यर्थ है । तिर्यंच भी परिग्रह रहित नग्न रहते हैं । अतः तुम दूरभव्य हो, हमारे बंदने योग्य नहीं हो। तुम्हारे भाव तो ऐसे हैं कि यदि हमारा दोष प्रकट हो जायेगा तो हम निंद्य हो जायेंगे, हमारा उच्चपना घट जायेगा, किन्तु तुम्हारा ऐसा मानना बंध का कारण है। श्रमण तो स्तुति-निंदा में समान परिणाम रखनेवाले होते हैं। इस प्रकार गुरु कठोर वचन कहकर भी मायाचार आदि का अभाव कराते हैं।
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