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________________ २६६] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार से पढ़ा नहीं, वही यदि दूसरों को प्रायश्चित देता है तो संसाररूप कीचड़ में डूबता है, अपयश उपार्जन करता है तथा उन्मार्ग का उपदेश देकर सम्यङ्मार्ग का नाश करके मिथ्यादृष्टि होता है। जो इतने गुणों का धारक हो उसे प्रायश्चित शास्त्र पढ़ाकर गुरु अपना आचार्य पद दे देते हैं। जो महान काल में उत्पन्न हुआ हो, व्यवहार-परमार्थ का ज्ञाता हो, किसी भी काल में अपने मूल गुणों में अतिचार नहीं लगाता हो, चारों अनुयोगरूप शास्त्रसमुद्र का पारगामी हो, धैर्यवान हो, कुलवान हो, परीषह जीतने में समर्थ हो, देवों द्वारा किये गये उपसर्ग से भी जो चलायमान नहीं हो, वक्तापने की शक्ति का धारक हो, वादी-प्रतिवादी को जीतने में समर्थ हो, विषयों से अत्यन्त विरक्त हो, बहुत समय तक गुरुसंघ में रहा हो, सर्वसंघ के मान्य हो, समस्त संघ ने पहले ही जिसमें आचार्यपने की योग्यता जान ली हो, जिसे गुरुओं का दिया प्रायश्चित शास्त्र का ज्ञाता होकर आचार्यपने की योग्यता जान ली हो, वह प्रायश्चित देता है। इतने गुणों बिना, जैसे मूढ़ वैद्य यदि देश, काल, प्रकृति आदि को नहीं जानता है तो वह रोगी को मार डालता है, उसी प्रकार व्यवहार ज्ञान रहित मूढ़ गुरु भी शिष्य को संसार में डुबोनेवाला ही है। इसलिये आचार्य को व्यवहारवान होना ही चाहिये ।। प्रकर्ता : आचार्य को प्रकर्त्ता गुण सहित होना चाहिये। संघ में कोई रोगी हो, वृद्ध हो, अशक्त हो, बालक हो जिसने सन्यास धारण कर लिया हो उनकी वैयावृत्य में नियुक्त किये गये मुनि तो सेवा करते ही हैं, परन्तु स्वयं आचार्य भी यदि संघ के मुनियों में कोई अशक्त हो जाये तो उसे उठाना, बैठाना, शयन कराना, मल-मूत्र-कफ तथा खून-पीव आदि शरीर से दूर करना, धोना, उठाना, प्रासुक स्थान में फेकना, धर्मोपदेश देना, धर्मग्रहण कराना इत्यादि आदर पूर्वक भक्तिसहित वैयावृत्य करे। उनको देखकर संघ के सभी मुनि वेयावृत्य करने में सावधान हो जाते हैं तथा विचार करते हैं :___ अहो धन्य हैं यह गुरू भगवान परमेष्ठी करूणानिधान , जिनके धर्मात्मा में ऐसा वात्सल्य हैं। हम महानिंद्य है, आलसी हो रहे हैं, हमारे होते हुए भी गुरू सेवा करे - यह हमारा प्रमादीपना धिक्कारने योग्य हैं, बंध का कारण है। ऐसा विचार कर समस्त संघ वैयावृत्य में उद्यमी हो जाता हैं। यदि आचार्य स्वयं प्रमादी हो तो सकलसंघ वात्सल्य रहित हो जाये। इसलिये आचार्य का कर्तृत्य गुण मुख्य है। समस्त संघ की वैयावृत्य करने की जिसमें क्षमता हो वह आचार्य होता है, कोई हीन आचारी हो तो उसे शुद्ध आचार ग्रहण कराते हैं, कोई मंद ज्ञानी हो तो उसे समझाकर चारित्र में लगाते हैं, किसी को प्रायश्चित देकर शुद्ध करते है, किसी को धर्मोपदेश देकर दृढ़ता कराते हैं। धन्य हैं आचार्य! जिनको उनकी शरण प्राप्त हो गई उनको मोक्षमार्ग में लगाकर उद्धार कर देते हैं। इसलिये आचार्य का प्रक गुण प्रधान है ।४। अपायोपाय - विदर्शी : अपायोपाय – विदर्शी नाम का आचार्य का पाँचवाँ गुण है। कोई साधु क्षुधा, तृषा, रोग वेदना से क्लेशित परिणामरूप हो जाये, तीव्र राग-द्वेष रूप हो जाये, लज्जा से भय से यथावत् आलोचना नहीं करे, रत्नत्रय में उत्साह रहित हो जाये, धर्म में शिथिल हो जाये उसे अपाय अर्थात् रत्नत्रय का नाश, उपाय अर्थात् रत्नत्रय की रक्षा का प्रकट ऐसा गुण-दोष दिखाये कि Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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