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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२६५ हो जाता है, धर्मध्यान रहित हो जाता है, तब बहश्रुतगुरु ऐसा उपदेश देते हैं जिससे क्षुधातृषा की वेदना रहित होकर उपदेशरूप अमृत से सींचा हुआ समस्त क्लेशरहित हुआ धर्मध्यान में लीन हो जाता है। क्षुधा, तृषा, रोगादि की वेदना सहित शिष्य को धर्म के उपदेश रूप अमृत का पानी तथा उत्तम शिक्षा रूप भोजन द्वारा ज्ञानसहित गुरु ही वेदना रहित करते हैं। बहुश्रुती के आधार बिना धर्म नहीं रहता है। इसलिये जो आधारवान आचार्य हो उसी की शरण ग्रहण करना योग्य है। यदि शिष्य वेदना से दुःखी हो रहा हो तो उसका शरीर सहलाना, हाथ पैर मस्तक दाबना, मीठे शब्द बोलना इत्यादि द्वारा दुःख दूर करे। पूर्व में जो अनेक साधुओं ने घोर परिषह सहकर आत्मकल्याण किया उनकी कथा कहकर देह से भिन्न आत्मा का अनुभव कराकर वेदना रहित करे। हे मुने! अब दुःख में धैर्य धारण करो, संसार में कौन-कौन से दुःख नहीं भोगे? यदि वीतरागी की शरण ग्रहण करोगे तो दःखों का नाश करके कल्याण को प्राप्त हो जाओगे - इत्यादि बहत प्रकार से कहकर मार्ग से विचलित नहीं होने दे. ऐसा आधारवान गुरु ही शरण लेने योग्य है ।२। हारवान : आचार्य को व्यवहार प्रायश्चित शास्त्र का ज्ञाता होना चाहिये क्योंकि प्रायश्चित शास्त्र तो जो आचार्य होने के योग्य होता है उसी को पढ़ाया जाता हैं, औरों के पढ़ने योग्य नहीं है। जो जिन आगम का ज्ञाता हो, महाधैर्यवान हो, प्रबलबुद्धि का धारक हो वही प्रायश्चित दे सकता है। द्रव्य, क्षेत्र. काल, भाव, क्रिया, परिणाम, उत्साह , संहनन, पर्याय, दीक्षा का काल , शास्त्र ज्ञान, पुरुषार्थ आदि को अच्छी तरह जानकर जो राग-द्वेष रहित होता है वही प्रायश्चित देता है। __जिसमें इतनी प्रवीणता हो कि यह जान सके कि प्रायश्चित लेनेवाले को कितना प्रायश्चित देने पर उसके परिणाम उज्ज्वल हो जायेंगे, दोष का अभाव हो जायेगा, व्रतों में दृढ़ता होगी, ऐसा ज्ञाता हो। जिसे आहार की योग्यता-अयोग्यता का ज्ञान हो, इस क्षेत्र में ऐसे प्रायश्चित का निर्वाह होगा या नहीं होगा, इस क्षेत्र में वात-पित-कफ-शीत-उष्णता की अधिकता है, या समपना है, अथवा इस क्षेत्र में मिथ्यादृष्टियों की अधिकता है या मंदता है। धर्मात्माओं की अधिकता है या मंदता है, यह जानकर प्रायश्चित का निर्वाह होता दिखाई दे तो प्रायश्चित देना चाहिये। शीत-उष्ण-वर्षाकाल को, अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी का तीसरा, चौथा, पंचम काल को देखकर काल के आधीन प्रायश्चित का निर्वाह होता दिखाई दे तो प्रायश्चित दे। परिणाम देखना चाहिये, यह भी देखना कि तपश्चरण में इसका तीव्र उत्साह है या मंद है। संहनन की हीनता-अधिकता, बल की मंदता-तीव्रता भी देखना चाहिये। यह भी देखना चाहिये कि यह बहुत काल का दीक्षित है या नवीन दीक्षित है, सहनशील है या कायर है, बाल-युवा-वृद्ध अवस्था भी देखना चाहिये; आगम का ज्ञाता है या मंद ज्ञानी, पुरुषार्थी है या मंद उद्यमी है - इत्यादि का ज्ञाता होकर प्रायश्चित देना चाहिये।। दोषरूप आचरण जिस प्रकार फिर नहीं करे तथा पूर्व में किये दोष दूर हो जाँय , उस प्रकार शास्त्र के अनुकूल प्रायश्चित देना चाहिये। जिसने गुरुओं के निकट प्रायश्चित शास्त्र से व अर्थ Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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