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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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आचार्य के आठ गुण : आचार्य के अन्य अष्ट गुण हैं जिनका धारण करनेवाला ही आचार्य होना चाहिये - आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान, प्रकर्त्ता, अपायोपायविदर्शी, अवपीड़क, अपरित्रावी, निर्यापक – ये आठ गुण हैं।
आचारवान : जो पाँच प्रकार का आचार धारण करता हैं, उसे आचारवान कहते हैं। भगवान सर्वज्ञ वीतराग देव ने अपने दिव्य निरावरण ज्ञान द्वारा जीवादि तत्त्वों को प्रत्यक्ष देखकर कहा है, उनमें सम्यक्श्रद्धान रूप परिणति होना वह दर्शनाचार हैं। स्वपर तत्त्वों का निर्बाध आगम और आत्मानुभव से जाननेरूप प्रवृत्ति वह ज्ञानाचार है। हिंसादि पाँच पापों के अभावरूप प्रवृत्ति वह चारित्राचार हैं। अंतरंग-बहिरंग तप में प्रवृत्ति वह तपाचार है। परीषह आदि आने पर अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर धीरतारूप प्रवृत्ति वह वीर्याचार है। और भी दश प्रकार के स्थिति कल्प आदि आचार में तत्पर हो।
समिति-गुप्ति आदि का कथन करें तो कथन बहुत बढ़ जायेगा। पाँच प्रकार का आचार आप स्वयं निर्दोष पाले, तथा अन्य शिष्यों को भी निर्दोष आचरण कराने में उद्यमी हो वही
चार्य है। यदि आचार्य स्वयं ही हीनाचारी हो तो वह शिष्यों से शुद्ध आचरण नहीं करा सकेगा। जो हीनाचारी होगा, वह आहार, विहार, उपकरण, वसतिकादि अशुद्ध ग्रहण करा देगा। जो स्वयं ही आचारहीन होगा वह शुद्ध उपदेश नहीं कर सकेगा। इसलिये आचार्य को आचारवान ही होना चाहिये।।
आधारवान : जिनके जिनेन्द्र का कहा चारों अनुयोग का आधार हो, स्याद्वाद विद्या का पारगामी हो, शब्द विद्या, न्याय विद्या, सिद्धान्त विद्या का पारगामी हो। प्रमाण, नय, निक्षेप द्वारा व स्वानुभव के द्वारा भली प्रकार से जिसने तत्वों का निर्णय किया हो वह आधारवान है। जिसके श्रुत का आधार नहीं हो वह अन्य शिष्यों का संशय, एकान्तरूप हट तथा मिथ्याचरण का निराकरण नहीं कर सकेगा।
अनंतानंत काल से परिभ्रमण करते आये जीव को अति दुर्लभ मनुष्य जन्म की प्राप्ति , उसमें भी उत्तम देश, जाति, कुल, इंद्रियों की पूर्णता, दीर्घायु, सत्संगति, श्रद्धान, ज्ञान, आचरण-ये उत्तरोत्तर दुर्लभ संयोग पाकर, यदि अल्पज्ञानी गुरु के पास रहनेवाला शिष्य हुआ तो वह सत्यार्थ उपदेश नहीं प्राप्त करने के कारण, अपना स्वरूप यथार्थ नहीं जानकर संशयरूप हो जायेगा तथा मोक्षमार्ग को अतिदूर अतिकठिन जानकर रत्नत्रय मार्ग से विचलित हो जायेगा।
सत्यार्थ उपदेश बिना विषय कषायों में उलझे मन को निकालने में समर्थ नहीं होगा, तथा रोगकृत वेदना में व उपसर्ग परिषहों से विचलित हुये भावों को शास्त्र के अतिशयरूप उपदेश बिना थामने को समर्थ नहीं होगा; यदि मरण आ जाये तब संन्यास के अवसर में आहार-पान का त्याग का यथा अवसर देश-काल सहायक-सामर्थ्य के क्रम को समझे बिना शिष्य के भाव विचलित हो जायें या आर्तध्यान हो जाये तो सुगति बिगड़ जायेगी, धर्म का अपवाद होगा, अन्य मुनि भी धर्म में शिथिल हो जायेंगे, यह तो बड़ा अनर्थ है ?
यह मनुष्य आहारमय है, आहार से ही जी रहा है, आहार की ही निरन्तर वांछा करता है। जब रोग के कारण तथा त्याग कर देने से आहार छूट जाता है तथा दुःख से ज्ञान-चारित्र में शिथिल
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