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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ- सम्यग्दर्शन अधिकार [२६३ अंतरंग-बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, निर्ग्रन्थ मार्ग में गमन करने में तत्पर हैं, उपवास वेला-तेला पंचोपवास , पक्षोपवास , मासोपवास करने में तत्पर हैं, तथा निर्जन वन में पर्वतों के दराड़े में गुफाओं के स्थान में निश्चल शुभ ध्यान में मन को धारते हैं। शिष्यों की योग्यता को अच्छी तरह से जानकर दीक्षा देने में व शिक्षा करने में निपुण हैं, युक्ति से सब प्रकार के नयों के जाननेवाले हैं, अपने शरीर से ममत्व छोड़कर रहते हैं, रात्रि-दिन संसार कूप में पतन हो जाने से भयवान हैं। जिन्होंने मन-वचन-काय की शुद्धता सहित नासिका के अग्रभाग में नेत्रयुगल को स्थापित किया है, ऐसे आचार्य को मस्तक सहित अपने सभी अंगों को पृथ्वी में नवाकर वंदन करना चाहिये। उन आचार्यों के चरणों के स्पर्श से पवित्र हई रज को अष्ट द्रव्य से पजिये। इस प्रकार संसार परिभ्रमण के नष्ट करनेवाली आचार्य भक्ति है। आचार्य के विशेष गुण : अब यहाँ ऐसा विशेष जानना - जो आचार्य हैं वे समस्त धर्म के नायक हैं, आचार्यों के आधार से समस्त धर्म हैं। अतः इन गुणों के धारक को ही आचार्य होना चाहिये। ___बड़े राजाओं के, राजा के मंत्री के, महान श्रेष्ठियों के कुल में उत्पन्न हुए हों; जिनके स्वरूप को देखते ही परिणाम शांत हो जाय ऐसे मनोहर रूप वाले हों; जिनका उच्च आचार जगत में प्रसिद्ध हो; पहले गृहस्थ अवस्था में भी कभी हीन आचार निंद्य व्यवहार नहीं किया हो; वर्तमान भोग सम्पदा छोड़कर विरक्तता को प्राप्त हुए हों, लौकिक व्यवहार तथा परमार्थ के ज्ञाता हों; बुद्धि की प्रबलता तथा तप की प्रबलता के धारक हों। संघ के अन्य मुनियों से जैसा तप नहीं बन सके वैसे तप के धारक हों; बहुत काल के दीक्षित हों; बहुत काल तक गुरुओं का चरणसेवन किया हो, वचन में अतिशय सहित हों; जिनके वचन सुनते ही धर्म में दृढ़ता हो, संशय का अभाव हो, जो संसार-शरीर-भोगों से दृढ़-निश्चल विरागता वाले हों; सिद्धान्त सूत्र के अर्थ के पारगामी हों; इंद्रियों का दमन करके इसलोक-परलोक संबंधी भोग-विलास रहित हों; देहादि में निर्ममत्व हों, महाधीर हो; उपसर्ग-परीषहों से जिनका चित्त कभी चलायमान नहीं हो। यदि आचार्य ही विचलित हो जांय तो सकल संघ भ्रष्ट हो जाये, धर्म का लोप हो जाये। स्वमत परमत के ज्ञाता हो, अनेकान्त विद्या में क्रीड़ा करनेवाले हों, अन्य के प्रश्न आदि का कायरता रहित तत्काल उत्तर देनेवाले हों, एकान्त पक्ष का खंडन कर सत्यार्थ धर्म की स्थापना करने की जिनमें सामर्थ्य हो, धर्म की प्रभावना करने में उद्यमी हों, गुरुओं के निकट प्रायश्चित आदि शास्त्र पढ़कर छत्तीस गुणों के धारक हों उन्हें समस्त संघ की साक्षी पूर्वक गुरुओं का दिया आचार्य पद प्राप्त होता है। जो इतने गुणों का धारक हो उसी को आचार्यपना होता है। इन गणों के बिना यदि आचार्य होगा तो धर्मतीर्थ का लोप हो जायेगा. उन्मार्ग (विपरीत) की प्रवृत्ति हो जायेगी, समस्त संघ स्वेच्छाचारी हो जायेगा, शास्त्र की परिपाटी तथा आचार की परिपाटी टूट जायेगी। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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