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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२५७ जो आचार्य आदि गुरु शिष्य को श्रुत के अंग पढ़ाते हैं, तथा व्रत-संयम आदि की शुद्धि का उपदेश देते हैं वह शिष्य की वैयावृत्य है। शिष्य भी गुरुओं की आज्ञा के अनुसार प्रवर्तता हुआ गुरुओं के चरणों की सेवा करे वह आचार्य की वैयावृत्य है। अपने चैतन्य स्वरूप आत्मा को रागद्वेष आदि दोषों से लिप्त नहीं होने देना वह अपने आत्मा की वैयावृत्य है। अपने आत्मा को भगवान के परमागम में लगा देना, दश लक्षणरूप धर्म में लीन हो जाना वह अपने आत्मा की वैयावृत्य है। काम, क्रोध, लोभ आदि के तथा इंद्रियों के विषयों के आधीन नहीं होना वह अपने आत्मा की वैयावृत्य है। यहाँ और भी विशेष जानना - रोगी मुनियों का तथा गुरुओं का प्रातः एवं संध्याकाल ( आथण) शयन, आसन, कमंडल, पीछी, पुस्तक अच्छी तरह नेत्रों से देखकर मयूर पीछी से शोधना; अशक्त रोगी मुनि का आहार-औषधि आदि द्वारा संयम के योग्य उपचार करना; शुद्ध ग्रन्थ को बांचकर, धर्म का उपदेश देकर परिणामों को धर्म में लीन करना; तथा उठाना, बैठाना, मल-मूत्र कराना, करवट लिवाना इत्यादि सब वैयावृत्य है। कोई साधु रास्ते में दुःखी हुआ हो; भील, म्लेच्छ, दुष्ट राजा, दुष्ट तिर्यंचों द्वारा दुःखी हुआ हो, उपद्रव रूप हुआ हो, दुर्भिक्ष , मरी-व्याधि, इत्यादि उपद्रवों से पीड़ा होने से परिणाम कायर हुए हों तो उसे स्थान देकर कुशल पूछकर आदर से सिद्धान्त की शिक्षा देकर स्थितिकरण करना वह वैयावृत्य है। ___जो समर्थ होकर के भी अपने बल-वीर्य को छिपाकर वैयावृत्य नहीं करता है वह धर्म रहित है। उसने तीर्थकरो की आज्ञा भंग की, श्रुतद्वारा उपदेशित धर्म की विराधना की, अपना आचार बिगाड़ लिया, प्रभावना नष्ट की। धर्मात्मा का आपत्ति में भी उपकार नहीं किया तब धर्म से बिमुख हुआ, श्रुत की आज्ञा लोपने से परमागम से पराङ्मुख हुआ। वैयावृत्य से ऐसे परिणाम होते हैं कि अहो! मोह अग्नि से जलते हुए जगत में एक दिगम्बर मुनि ही ज्ञानरूप जल के द्वारा मोहरूप अग्नि को बुझाकर आत्म कल्याण करते हैं। वे धन्य हैं जो काम को मारकर, रागद्वेष का त्यागकर, इंद्रियों को जीतकर आत्मा के हित में उद्यमी हुए हैं। ये लोकोत्तर गुणों के धारी हैं। मुझे ऐसे गुणवंतों के चरणों की शरण ही प्राप्त हो। इस प्रकार के गुणों में परिणाम वैयावृत्य से ही होते हैं। जैसे-जैसे गुणों में परिणाम मग्न होते हैं। वैसे-वैसे श्रद्धान बढ़ता है, जब श्रद्धान बढ़ता है तब धर्म में प्रीति बढ़ती है, तब धर्म के नायक अरहन्तादि पंच परमेष्ठी के गुणों में अनुरागरूप भक्ति बढ़ती है। भक्ति कैसी होती है ? मायाचार रहित, मिथ्याज्ञान रहित, भोगों की वांछा रहित, मेरु के समान निष्कंप-अचल, ऐसी जिनभक्ति जिसे होती है उसे संसार के परिभ्रमण का भय नहीं रहता है। ऐसी भक्ति धर्मात्मा की वैयावृत्य से होती है। पाँच महाव्रतों सहित, कषायों से रहित, रागद्वेष को जीतनेवाले, श्रुतज्ञानरूप रत्नों के निधान, ऐसे पात्र का लाभ वैयावृत्य करनेवाले को होता है। जिसने रत्नत्रयधारी की वैयावृत्य की उसने रत्नत्रय Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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