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________________ २५८] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार से अपनी जोड़ स्वयं को तथा दूसरों को मोक्षमार्ग में स्थापित कर लिया। जिसने आचार्य की वैयावृत्य की है उसने सम्पूर्ण संघ की-सर्व धर्म की वैयावृत्य की, भगवान की आज्ञा पाली, अपने तथा अन्य के संयम की रक्षा की, शुभध्यान की वृद्धि तथा इंद्रियों का निग्रह किया, रत्नत्रय की रक्षा की, अत्यधिक दान दिया, निर्विचिकित्सा गुण को प्रकट दिखाया, जिनेन्द्र के धर्म की प्रभावना की। धन खर्च कर देना सुलभ है, किन्तु रोगी की टहल सेवा करना दुर्लभ है। अन्य के औगुण ढंकना, गुण प्रकट करना इत्यादि गुणों के प्रभाव से तीर्थंकर नाम की प्रकृति का बंध होता है। यह वैयावृत्य में उत्तम हैं, ऐसी जिनेन्द्र की शिक्षा है। जो कोई श्रावक या साधु वैयावृत्य करता है वह उत्कृष्ट निर्वाण को प्राप्त करता है। जो अपनी सामर्थ्य के अनुसार छ:काय के जीवों की रक्षा करने में सावधान है उससे समस्त प्राणियों को वैयावृत्य होती है। इस प्रकार वैयावृत्य नाम की नवमी भावना का वर्णन किया ।९।। अर्हन्त भक्ति भावना अब अर्हन्तभक्ति नाम की दशमी भावना का वर्णन करते हैं। मन, वचन, काय द्वारा 'जिन' ऐसे दो अक्षर सदाकाल स्मरण करना वह अर्हन्तभक्ति है। अरहन्त के गुणों में अनुराग वह अर्हन्त भक्ति है। जिसने पूर्व जन्म में सोलहकारण भावना भाई हैं वह तीर्थंकर होकर अर्हन्त होता है। उसके सोलहकारण भावना से उत्पन्न अद्भुत पुण्य के प्रभाव से गर्भ में आने के छ: माह पहले से इंद्र की आज्ञा से कुबेर बारह योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी रत्नमयी नगरी की रचना करता है। उसके मध्य में राजा के रहने के महल का वर्णन तथा नगरी की रचना, बड़े दरवाजे, कोट, खाई, परकोट इत्यादि जो कुबेर रचता है, उसकी महिमा का तो कोई हजार जिह्वाओं द्वारा वर्णन करने में समर्थ नहीं है। वहाँ तीर्थंकर की माता के गर्भ का शोधन रुचिक द्वीपादि में रहनेवाली छप्पन कुमारी देवी करती हैं तथा वे देवियाँ माता की अनेक प्रकार की सेवा करने में सावधान रहती हैं। गर्भ में आने के छ: महीना पहले से कुबेर प्रभात, मध्याह, अपराह, एक-एक काल में आकाश से साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा करता है। इसके बाद भी गर्भ में आते ही इंद्र आदि चारों निकाय के देवों के आसन कम्पायमान होने से चार प्रकार के देव आकर नगरी की प्रदक्षिणा देकर माता-पिता की पूजा सत्कार करके अपने-अपने स्थान को चले जाते हैं। भगवान तीर्थंकर स्फटिक मणि के पिटारा समान मलादि रहित माता के गर्भ में विराजमान रहते हैं। कमलवासिनी छ: देवी तथा रुचिक द्वीप में रहनेवाली छप्पन कुमारी देवी तथा और अनेक देवियाँ माता की सेवा करती हैं। नौ महीना पूर्ण होने पर उचित समय में जन्म होते ही चारों निकाय के देवों के आसन कम्पायमान होना तथा बाजों के अकस्मात् बजने से जिनेन्द्र का जन्म होना जानकर, बड़े हर्ष से सौधर्म नाम का इंद्र, एक लाख योजन प्रमाण के ऐरावत हाथी के ऊपर बैठकर अपने सौधर्म स्वर्ग के इकतीसवें पटल के अठारहवें श्रेणीबद्ध विमान से अपने असंख्यात देवों के परिकर Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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