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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार २५६] मुनियों के दश भेद होने से वैयावृत्य के भी दश भेद हैं। आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य , ग्लान, गण, कुल , संघ, साधु, मनोज्ञ - इन दश प्रकार के मुनियों की परस्पर में वैयावत्य होती है। काय की चेष्टा द्वारा अन्य द्रव्यों से द:ख. वेदन आदि दर करने का कार्य - व्यापार करना, प्रवर्तन करना वह वैयावृत्य है। दश प्रकार के मुनियों का ऐसा स्वरूप जानना - जिनसे स्वर्ग-मोक्ष सुख के बीज जो व्रत हैं उनको आदर सहित ग्रहण करके भव्य जीव अपने हित के लिये पालते हैं- आचरण करते हैं, ऐसे सम्यग्ज्ञान आदि गुणों के धारक आचार्य हें। जिनका सामीप्य प्राप्त करके आगम का अध्ययन करते हैं, ऐसे व्रत, शील, श्रुत के आधार उपाध्याय हैं। जो महान अनशनादि तप करने वाले हैं वे तपस्वी हैं। जो निरन्तर श्रुत के शिक्षण में तत्पर तथा व्रतों की भावना में तत्पर रहते हैं वे शैक्ष्य हैं। रोगादि के द्वारा जिन का शरीर दुःखी हो वे ग्लान हैं। जो वृद्ध मुनियों की परिपाटी के हों वे गण हैं। अपने को दिक्षा देनेवाले आचार्य के जो शिष्य हैं वे कुल हैं। ऋषि, यति, मुनि, अनगार-इन चार प्रकार के मुनियों का जो समूह है वह संघ है। बहुत समय से जो दीक्षित हों वे साधु हैं। जो पण्डितपने द्वारा, वक्तापने द्वारा, ऊँचे कुल द्वारा (प्रसिद्ध गुरु का शिष्य होना) लोगों में मान्य होकर धर्म का , गुरुकुल का गौरवपना उत्पन्न करनेवाले हों – बढ़ानेवाले हों वे मनोज्ञ हैं। अथवा असंयत सम्यग्दृष्टि भी संसार के अभावरूपपने के कारण मनोज्ञ है। इन दश प्रकार के मुनियों के रोग आ जाय, परीषहों से दुःखी होकर तथा श्रद्धानादि बिगड़ जाने से मिथ्यात्व आदि को प्राप्त हो जाँय तो प्रासुक औषधि, भोजन-पानी, योग्य स्थान, आसन, तखत, तृणादि की बिछावन करके, पुस्तक-पीछी आदि धर्मोपकरण द्वारा प्रतिकार-उपकार करना, तथा पुनःसम्यक्त्व में स्थापित करना इत्यादि उपकार करना वह वैयावृत्य है, यदि बाह्य जो भोजन-पानी-औषधि देना सम्भव नहीं हो तो अपने शरीर द्वारा ही उनका कफ, नाक का मैल, मूत्रादि दूर कर देने से तथा उनके अनुकूल आचरण करने से वैयावृत्य होती है। इस वैयावृत्य में संयम की स्थापना, ग्लानि का अभाव, प्रवचन में वात्सल्यता, सनाथपना इत्यादि अनेक गुण प्रकट होते हैं। वैयावृत्य ही परम धर्म है। वैयावृत्य नहीं हो तो मोक्षमार्ग बिगड़ जायेगा। आचार्य आदि अपने शिष्य, मुनि, रोगी इत्यादि की वैयावृत्य करने से बहुत विशुद्धता व उच्चता को प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार श्रावक भी मुनियों की वैयावृत्य करें, तथा श्रावकायें आर्यिका की वैयावृत्य करें। औषधिदान द्वारा भी वैयावृत्य करे, भक्ति पूर्वक युक्ति से देह का आधार आहारदान देकर वैयावृत्य करें। कर्म के उदय से कोई दोष लग गया हो तो उसे ढांकना, श्रद्धान से चलायमान हो गया हो तो उसे सम्यग्दर्शन ग्रहण कराना, जिनेन्द्र के मार्ग से बिछुड़ गया हो तो उसे मार्ग में स्थापित करना इत्यादि उपकार द्वारा भी वैयावृत्य होती है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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