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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
[२५५ है) संसार परिभ्रमण को नहीं रोक सकते हैं, सम्यग्दर्शन बिना समस्त क्रिया पुण्य का बंध करनेवाली है, सम्यग्दर्शन सहित हो तभी संसार का नाश कर सकती है। वही आत्मानुशासन में कहा है
शम वोधवृत्त तपसां पाषाणस्येव गौरवं पुंसः ।
पूज्यं महामणेरिव तदेव सम्यक्त्व संयुक्तम् ।।१५।। अर्थ - पुरुषके शमभाव, ज्ञान, चारित्र और तप इनका महानपना पाषाण के महानपने के समान है, ये ही शम, बोध, चारित्र व तप यदि सम्यक्त्व सहित हों तो महामणि के समान पूज्य हैं।
भावार्थ - जगत में मणि भी पाषाण है तथा अन्य रेतीला पत्थर भी पाषाण है। जैसे कोई मनुष्य साधारण पत्थर तो मन-दो मन भी बांधकर ले जाय और बेचे तो एक पैसा ही मिले, तथा उससे एक दिन भी पेट नहीं भरे। मणि कोई रत्ती भर भी ले जाय और बेचे तो हजारों रुपये मिलें, समस्त जन्म की दरिद्रता मिट जाये। उसी प्रकार शमभाव, शास्त्रों का ज्ञान, चारित्र धारण, घोर तपश्चरण – ये सम्यक्त्व बिना बहुत काल धारण करे तो राज्य संपदा मिल जायेगी, मंद कषाय के प्रभाव से देवलोक में पैदा हो जायेगा, फिर वहाँ से मरकर एक इंद्रिय आदि पर्यायों में परिभ्रमण करेगा, किन्तु यदि ये सम्यक्त्व सहित होवें तो संसार परिभ्रमण का नाश करके मुक्त हो जायेगा।
सम्यक्त्व बिना जो मिथ्यादृष्टि है वह जिनराज की पूजन करे, निर्ग्रन्थ गुरु की वंदना करे, समोशरण में जाये, जिनागम का अभ्यास करे, उत्कृष्ट तप करे तो भी अनंतकाल तक संसार में ही निवास करता रहेगा।
इस तीनलोक में सुख:दुःख की सभी सामग्री इस जीव ने अनन्तबार पाई है, कुछ भी दुर्लभ नहीं है; एक साधुसमाधि रूप जो रत्नत्रय की लब्धि है उसे निर्विन परलोक तक ले जाना दुर्लभ है। जो रत्नत्रय सहित होकर देह को छोड़ता है, उसके जो साधुसमाधि होती है उसकी प्राप्ति दुर्लभ है।
साधुसमाधि चतुर्गति में परिभ्रमण के दुःख का अभाव करके निश्चल, स्वाधीन, अनन्त सुख को प्राप्त कराती है। जो पुरुष साधुसमाधि भावना को निर्विघ्न रूप से प्राप्त करने के लिये इस भावना को भाता हुआ इसका महान अर्घ उतारण करता है वह शीघ्र ही संसार समुद्र को पारकर के अष्ट गुणों का धारक सिद्ध बन जाता है। इस प्रकार साधुसमाधि नाम की आठवीं भावना का वर्णन किया ।८।
वैयावृत्य भावना ___अब वैयावृत्य नाम की नवमी भावना का वर्णन करते हैं। कोढ़, पेट के रोग, आमवात, संग्रहणी कठोदर, सफोदर, नेत्र शूल , कर्णशूल , शिरशूल, दंतशूल तथा ज्वर, कास, श्वास, जरा इत्यादि रोगों से पीड़ित जो मुनि तथा श्राविक हैं उनको निर्दोष आहार, औषधि, वसतिका आदि देकर सेवा-शुश्रुषा करना, विनय करना, आदर करना, दुःख दूर करने का यत्न करना वह सब वैयावृत्य है। जो तप द्वारा तपे हुए हों, किन्तु रोग सहित शरीर हो, उनका दुःख देखकर उनके लिये प्रासुक औषधि तथा पथ्य आदि द्वारा रोग का उपशमन करना वह वैयावृत्य भावना है।
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