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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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कोई भी बाह्य कारण रोग दूर करने में समर्थ नहीं है। ऐसा विचार करके असातावेदनीय कर्म के नाश का कारण परम समता भाव धारण करके, संक्लेश रहित होकर सहना, कायर नहीं होना, वही साधुसमाधि है ।
इष्ट का वियोग होने पर, अनिष्ट का संयोग होने पर ज्ञान की दृढ़ता से भय को प्राप्त नहीं होना वह साधु समाधि है । जो जीव जन्म-जरा-मरण के भय सहित है, किन्तु सम्यग्दर्शन आदि गुणों सहित है, वह इस मनुष्य पर्याय के अंत में आराधनाओं की शरण सहित व भय रहित होकर, देहादि सभी पर द्रव्यों में ममता रहित होकर, व्रत - संयम सहित होकर समाधिमरण की इच्छा करता है ।
इस संसार में परिभ्रमण करते हुए मेरा अनंतानंत काल बीत गया है। समस्त समागम अनेक बार पाया, परन्तु समाधिमरण प्राप्त नहीं हुआ है। यदि समाधिमरण एक बार भी मिल गया होता तो फिर जन्म-मरण का पात्र नहीं होता। संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने भवभव में अनेक नये-नये देह धारण किये हैं। ऐसी कौन सी देह है जो मैंने धारण नहीं की ? अब इस वर्तमान देह में क्यों ममत्व करूँ ? मुझे भव भव में अनेक स्वजन - कुटुम्बीजनों का भी संबंध हुआ है। आज पहली बार ही स्वजन नहीं मिले हैं। अत: किस किस स्वजन में राग करू ? मुझे भव-भव में अनेक बार राजऋद्धि प्राप्त हुई है । अब मैं इस तुच्छ वर्तमान सम्पदा में क्या ममता करूँ ? भव भव में मेरे अनेक पालन करनेवाले माता-पिता भी हो गये हैं, अभी ये प्रथम बार ही नहीं हुए हैं ?
मुझे भव-भव में अनेकबार नारीपना भी प्राप्त हुआ है, काम की तीव्र लम्पटता सहित मुझे भव-भव में अनेकबार नपुसंकपना भी प्राप्त हुआ है, तथा मुझे भव-भव में अनेकबार पुरुषपना भी प्राप्त हुआ है, तो भी वेद के अभिमान से नष्ट होता फिरता रहा । भव-भव में अनके जाति के दुःखों को प्राप्त हुआ हूँ, संसार में ऐसा कोई दुःख नहीं है जो मैंने अनेक बार नहीं पाया हो। ऐसा कोई इंद्रिय जनित सुख भी नहीं है जो मैंने अनेकबार नहीं पाया हो । अनेकबार नरक में नारकी होकर असंख्यात काल तक प्रमाण रहित अनेक प्रकार के दुःख भोगे हैं। अनेकबार तियँचों के भव प्राप्त करके अनंतबार जन्म-मरण करते हुए अनेक प्रकार के दुःख भोगते हुए बारम्बार परिभ्रमण किया है।
मैं अनेकबार धर्मवासना रहित मिथ्यादृष्टि मनुष्य भी हुआ हूँ। अनेकबार देवलोक में भी जन्म प्राप्त हुआ है, अनेक भवों में जिनेन्द्र की पूजा की है, अनेक भवों में गुरुवंदना भी की है, अनेक भवों में मिथ्यादृष्टि होकर कपटपूर्वक आत्मनिन्दा भी की है, अनेक भवों में दुर्द्धर तप भी धारण किया है, अनेक भवों में भगवान के समोशरण में भी हो आया हूँ, तथा अनेक भवों में श्रुतज्ञान के अंगों का भी पठन-पाठनादि का अभ्यास किया है तो भी अनंतकाल से भवनिवासी ही रहा।
यद्यपि जिनेन्द्र की पूजा करना, गुरुओं की वंदना करना, आत्म निंदा करना, दुर्द्धर तपश्चरण करना, समोशरण में जाना, जिनश्रुत के अंगों का अभ्यास करना इत्यादि कार्य प्रशंसा योग्य हैं, पाप का नाश करनेवाले हैं, पुण्य बंध के कारण हैं तो भी सम्यग्दर्शन बिना अकृतार्थ हैं (अकार्यकारी
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