SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [२५३ सत्ता इत्यादि भाव प्राण हैं, उनका कभी नाश नहीं होता है। अतः देह के नाश को अपना नाश मानना वह मिथ्यादर्शन- मिथ्याज्ञान है। हे ज्ञानी! हजारों कृमि से भरे, हाड़-मांसमय, दुर्गधित, प्रगट विनाशीक देह के नाश होने से तुम्हारा क्या होता है ? तुम तो अविनाशी ज्ञानमय हो। यह मृत्यु तो बड़ी उपकारी मित्र है जो तुम्हें सड़े-गले शरीर में से निकालकर देव आदि की उत्तम देह धारण कराती है। यदि मृत्यु मित्र नहीं आता तो इस देह में अभी कब तक और रहना पड़ता ? रोग तथा दुःखों से भरे शरीर में से कौन निकालता ? समाधिमरण करके आत्मा का उद्धार कैसे होता ? व्रत-तप-संयम का उत्तम फल मृत्यु नाम के मित्र के उपकार किये बिना कैसे पाता ? पाप से कौन भयभीत होता ? मृत्युरूप कल्पवृक्ष के बिना चार आराधनाओं की शरण ग्रहण कराकर संसाररूपी कीचड़ में से कौन निकालता ? जिनका चित्त संसार में आसक्त है तथा देह को अपनारूप जानते हैं, उन्हें मरण का भय होता है। सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूप को देह से भिन्न जानकर भयभीत नहीं होते हैं, उन्हीं के साधु समाधि होती है। मरण के समय में जो कभी रोग, दुःख आदि आता है, वह भी सम्यग्दृष्टि को देह से ममत्व छुड़ाने के लिये आता हैं, त्याग-संयम आदि के सन्मुख कराने के लिये आता है, प्रमाद को छुड़ाकर सम्यग्दर्शन आदि चार आराधनाओं में दृढ़ता कराने के लिये आता है। ज्ञानी विचार करता है - जिसने जन्म धारण किया है वह अवश्य मरेगा, यदि कायर हो जाऊँगा तो मरण नहीं छोड़ेगा, और यदि धीर बना रहूँगा तो मरण नहीं छोड़ेगा। इसलिये दुर्गति का कारण जो कायरतारूप मरण है, उसे धिक्कार हो। अब ऐसे साहस से मरूँगा कि देह मर जायेगी किन्तु मेरे ज्ञान-दर्शन स्वरूप का मरण नहीं होगा। ऐसा मरण करना उचित है। अतः उत्साह सहित सम्यग्दृष्टि के मरण का भय नहीं होना, वह साधु समाधि है। देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत उपसर्ग होने पर जिसको भय नहीं होता; पूर्व में बांधे हुए कर्म की निर्जरा ही मानता है, उसके साधु समाधि है। ज्ञानी रोग से भय नहीं करता है। वह तो अपने शरीर को ही महारोग जानता है, क्योकि शरीर ही तो क्षुधा, तृषा, आदि महारोगों को उत्पन्न करानेवाला है। यह मनुष्य शरीर वात, पित्त, कफादि त्रिदोषमय है। असातावेदनीय कर्म के उदय से, त्रिदोषों के घटने-बढ़ने से, ज्वर, खांसी, श्वास, अतिसार, पेटदर्द, सिरदर्द, नेत्रविकार, वातादि की पीड़ा होने पर ज्ञानी ऐसा विचार करता है - मुझे यह रोग उत्पन्न हुआ है उसका अंतरंग कारण तो असातावेदनीय कर्म का उदय है, बहिरंग कारण द्रव्य-क्षेत्र-कालादि हैं; कर्म के उदय का उपशम होने पर रोग का नाश हो जायेगा। ___ असातावेदनीय का प्रबल उदय होने पर बाह्य औषधि आदि कोई भी रोग को मिटाने में मर्थ नहीं है। असाता कर्म को हरने में कोई देव, दानव, मंत्र-तंत्र. औषधि आदि समर्थ नहीं है। अतः अब संक्लेश छोड़कर समता ग्रहण करना। बाह्य जो औषधि आदि हैं ,वे असातावेदनीय कर्म का उदय मंद हो जाने पर सहकारी कारण हैं। असातावेदनीय कर्म का तीव्र उदय होने पर औषधि आदि Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy