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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार २५२] तप है। दुष्ट देव, दुष्ट मनुष्य, दुष्ट तिर्यंचों द्वारा किये गये घोर उपसर्गों के आने पर कायरता छोड़कर कंपायमान नहीं होना वह तप है। जिससे चिरकाल का संचित किया हुआ कर्म निर्जरित हो जाय वह तप है। कुवचन बोलनेवालों में, निंद्य दोष लगानेवालों में, ताड़न, मारन, अग्नि में जला देना आदि उपद्रव करनेवालों में द्वेष बुद्धि से कलुषित परिणाम नहीं करना, तथा स्तुति पूजनादि करनेवालों में राग भाव का उत्पन्न नहीं होना वह तप है। ___पाँच महाव्रतों का धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, पाँच इंद्रियों का निरोध करना, छ: आवश्यकों को यथा समय करना, अपने सिर तथा दाढ़ी-मूंछ के बालों को अपने हाथ से उपवास के दिन लोंचना तप है। दो माह पूरे हो जाने पर उत्कृष्ट केशलोंच होता है, तीन माह पूरे हो जाने पर मध्यम, चार पूरे हो जाने पर जघन्य केशलोंच कहलाता है, वह भी तप है। अन्य भेषियों के समान प्रतिदिन केशलोच नहीं करते हैं। शीतकाल, ग्रीष्मकाल, वर्षाकाल में नग्न रहना, यावज्जीवन स्नान नहीं करना, जमीन पर शयन करना, अल्प निद्रा लेना, दाँतों का अंगुली से भी मंजन नहीं करना, एक बार खड़े-खड़े ही रस-नीरस स्वाद छोड़कर थोड़ा भोजन करना, इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणों को अखण्ड पालन करना वह भी बड़ा तप है। इस मूलगुणों के प्रभाव से घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्तकर मुक्त हो जाते हैं। हे ज्ञानी जनों! यह तप धर्म का अंग है। तप की निर्विघ्न प्राप्ति के लिये इसका स्तवनपूजन करके महान अर्घ उतारण करो। तप के द्वारा दूर रहनेवाला तथा अत्यन्त परोक्ष दिखने वाले मोक्ष भी तुम्हारे बहुत निकट आ जाता है। इस प्रकार शक्ति प्रमाण तप नाम की सातवीं भावना का वर्णन किया ७। साधु समाधि भावना अब साधु समाधि नाम की आठवीं भावना कहते हैं। जैसे भंडार में लगी हुई आग को गृहस्थ अपनी उपकारी वस्तुओं का नाश होना जानकर बुझाता ही है, क्योंकि अपनी उपकारी वस्तुओं की रक्षा करना बहुत आवश्यक है, उसी प्रकार व्रत-शील आदि अनेक गुणों सहित जो व्रती-संयमी को किसी कारण से विघ्न आ जाय तो निघ्नों को दूर करके व्रत-शील की रक्षा करना वह साधु समाधि है। अथवा गृहस्थ के अपने परिणामों को बिगाड़नेवाला मरणकाल आ जाये, उपसर्ग आ जाये, रोग आ जाये, इष्ट वियोग हो जाये, अनिष्ट संयोग आ जाये उस समय भयभीत नहीं होना, वह साधु समाधि है। __सम्यग्ज्ञानी ऐसा विचार करता है - हे आत्मन् ! तुम अखण्ड, अविनाशी, ज्ञान, दर्शन स्वभावी हो, तुम्हारा मरण नहीं हो सकता है। जो उत्पन्न हुआ है वह नष्ट होगा। पर्याय का विनाश होता है, चैतन्य द्रव्य का विनाश नहीं होता है। पाँच इंद्रियाँ, मनबल , वचनबल, कायबल, आयुबल, उच्छवास - ये दश प्राण हैं। इनके नाश को मरण कहते हैं। तुम्हारे ज्ञान, दर्शन, सुख Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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