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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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से सेवा उपकार करने पर भी यह अपना नहीं होता है, अत: चाहे - जैसे उपायों से इसे पुष्ट करना उचित नहीं है, कृष करने योग्य ही है, तो भी गुणरूपी रत्नों के संचय करने का कारण है।
शरीर के बिना रत्नत्रय धर्म नहीं होता है, रत्नत्रय धर्म बिना कर्मों का नाश नहीं होता है। इसलिये अपने प्रयोजन के लिये, विषयों में आसक्ति रहित होकर, सेवक के समान योग्य भोजन देकर, यथाशक्ति जिनेन्द्र के मार्ग से विरोध रहित, काय क्लेशादि तप करना योग्य हैं। तप किये बिना इंद्रियों के विषयों में लोलुपता नहीं घटती है, तप किये बिना तीनलोक को जीतने वाले काम को नष्ट करने की सामर्थ्य नहीं होती है। तप बिना आत्मा को अचेत करनेवाली निद्रा नहीं जीती जा सकती है। तप किये बिना शरीर का सुखिया स्वभाव नहीं मिटता है। यदि तप के प्रभाव के द्वारा शरीर को वश में कर रखा होगा तो क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि परिषहों के आने पर कायरता उत्पन्न नहीं होगी, संयमधर्म से चलायमान नहीं होगा। तप कर्मों की निर्जरा का कारण है, अतः तप करना ही श्रेष्ठ है।
अपनी शक्ति को छिपाये बिना जिस प्रकार जिनेन्द्र के मार्ग से विरोध रहित हो उसी प्रकार तप करो। तप नामक सुभट की सहायता के बिना अपने श्रद्धान, ज्ञान, आचरणरूप धन को, क्रोध, प्रमाद, आदि लुटेरे एक क्षण में लूट लेंगे; तब रत्नत्रयरूप संपत्ति से रहित होकर चतुर्गतिरूप संसार में दीर्घकाल तक भ्रमण करोगे । अतः जिस प्रकार से वात-पित्तकफ ये त्रिदोष विपरीत होकर रोगादि उत्पन्न नहीं कर दें उस प्रकार तप करना उचित है।
गर्मी,
उष्ण,
सभी तपों में प्रधान तप तो दिगम्बरपना है । कैसा है दिगम्बरपना ? घर की ममतारूप फंदे को तोड़कर, देह का समस्त सुखियापना छोड़कर, अपने शरीर में शीत, वर्षा, वायु, डांस, मच्छर, मक्खी आदि की बाधा को जीतने के सन्मुख होकर, कोपीनादि समस्त वस्त्रों का त्याग कर, दश दिशारूप ही जिसके वस्त्र हैं ऐसा दिगम्बरपना धारण करना, वह बहुत बड़ा अतिशयरूप तप जानना । जिसके स्वरूप को देखने-सुनने पर बड़ेबड़े शूरवीर कांपने लगते हैं ।
हे शक्ति को प्रकट करने वालों! यदि संसार के बंधन से छूटना चाहते हो तो जिनेश्वर देव संबंधी दीक्षा धारण करो । उस तप से शरीर का सुखियापना नष्ट हो जाता है, उपसर्ग - परीषह सहने में कायरता का अभाव हो जाता है; जिससे स्वर्ग लोक की रंभा, तिलोत्तमा भी अपने हावभाव, विलास, विभ्रम आदि द्वारा मन को काम विकार सहित नहीं कर सकती हैं, ऐसे काम को नष्ट करना वह तप हैं । इंद्रियों के विषयों में प्रवर्तने का अभाव हो जाना वह तप है।
दोनों प्रकार के परिग्रह में इच्छा का अभाव हो जाना वह तप है । तप तो वही है जो निर्जनवन में पर्वतों की भंयकर गुफा में जहाँ भूत - राक्षस आदि का अनेक प्रकार से विकार प्रवर्त रहा हो, सिंह, व्याघ्र आदि के भंयकर शब्द हो रहे हों, करोड़ों वृक्षों से अंधकार हो रहा हो, सर्प, अजगर, रीछ चीता इत्यादि भंयकर दुष्ट तिर्यंचों का आना जाना हो रहा हो, ऐसे महाविषम स्थानों में भय रहित होकर ध्यान - स्वाध्याय में निराकुल होकर रहना वह तप है।
आकरा के लाभ-अलाभ में समभाव रखना, मीठा, कडुआ, कषायला, ठंडा, गरम, सरस, नीरस भोजन जलादि में लालसा रहित, संतोष रूप, अमृत का पान करते हुये आनंद में रहना वह
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