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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
इस प्रकार संसार में परिभ्रमण के कारण, आत्मा के ज्ञानादि गुणों के घातक चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह हैं, इन्हीं में मूर्च्छा के कारण धन, धान्य, क्षेत्र, स्वर्ण, स्त्री, पुत्रादि चेतन अचेतन बाह्य परिग्रह हैं। अंतरंग - बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करने से त्याग धर्म होता है। यद्यपि बाह्य परिग्रह रहित तो दरिद्री मनुष्य स्वभाव से ही होता है। परन्तु अंतरंग परिग्रह का त्याग करना बहुत कठिन है। दोनों प्रकार के परिग्रह का एकदेश त्याग व्रती श्रावक के होता है, तथा पूर्ण त्याग महाव्रतधारी मुनिराजों के होता है।
विषय कषाय त्याग : कषायों के त्यागने से त्याग धर्म होता है। इंद्रियों को विषयों में जाने से रोकने से त्याग धर्म होता है। रसों का त्याग करने से त्याग धर्म होता है। रसना इंद्रिय की लोलुपता पर विजय प्राप्त करने से सभी पापों का त्याग सहज ही हो जाता है।
जिनेन्द्र के परमागम का अध्ययन करना, दूसरों को अध्ययन कराना, शास्त्रों को लिखाना, छपवाना, शुद्ध करना, कराना, वह भी परम उपकार करनेवाला त्याग धर्म है। मन के दुष्ट विकल्पों का अभाव करना, दुष्ट विकल्पों के कारण छोड़कर चारों अनुयोगों की चर्चा में चित्त को लगाना वह भी त्याग धर्म है। मोह का नाश करनेवाले धर्म का उपदेश श्रावकों को देना वह भी महापुण्य का उत्पन्न करानेवाला होने से त्याग धर्म है। वीतराग धर्म के उपदेश से अनेक प्राणियों के भाव पाप से भयभीत हो जाते हैं, तथा वे धर्म के स्वरूप को समझकर उसे ग्रहण कर लेते हैं।
उत्तम, मध्यम, जघन्य ऐसे तीन प्रकार के पात्रों को भक्ति सहित आदरदान देना, प्रासुक औषधि देना, ज्ञान के उपकरण - सिद्धान्तो के पढ़ने योग्य पुस्तकों का दान देना, मुनि के योग्य व श्रावक के योग्य वसतिका दान देना चाहिये । गुणों के धारकों को तप की वृद्धि का कारण आहार आदि चारों प्रकार का दान परम भक्ति से, प्रफुल्लचित्त से, अपने जन्म को कृतार्थ मानते हुए, गृहाचार को सफल मानते हुए, बड़े आदर से पात्र को करना चाहिये ।
पात्र दान होना महाभाग्य से जिनका भला होना है उन्हीं के द्वारा होता है। पात्र का लाभ होना ही दुर्लभ है। भक्ति सहित पात्र दान हो जाय जो उसकी महिमा कहने को कौन समर्थ है ?
क्षुधा तृषा से जो दुःखी हो, रोगी हो, दरिद्री हो, वृद्ध हो, दीन हो उनको दयापूर्वक दान देना वह सब त्याग धर्म है। त्याग से ही मनुष्य जन्म सफल है। त्याग से ही धनधान्यादि का पाना सफल है। त्याग बिना गृहस्थ का घर श्मशान के समान है, गृह का स्वामी पुरुष मृतक के समान है, स्त्री- पुत्रादि 'गृद्धपक्षी' के समान हैं जो इसके धनरूप माँस को चोंट- चोंट कर खाते हैं। इस प्रकार छटवीं त्याग भावना का वर्णन किया ।६।
शक्ति प्रमाण तप भावना
अब शक्ति प्रमाण तप भावना अंगीकार करना, उसका वर्णन करते हैं। यह शरीर दुःख का कारण है, अनेक दुःख उत्पन्न करता है, अनित्य है, अस्थिर है, अशुचि है, कृतघ्न के समान है। करोंडों उपकार करने पर भी जैसे कृतघ्न अपना नहीं होता है, उसी प्रकार शरीर की भी अनेक प्रकार
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