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________________ २४२] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ऐसी विनय गुण की महिमा जानकर इसका महान अर्घ उतारण करो। हे विनयसम्पन्नता अंग! हमारे हृदय में तुम्ही निरन्तर वास करो, तुम्हारे प्रसाद से अब मेरा आत्मा कभी भी आठ मदों रूप अभिमान को प्राप्त नहीं हो। इस प्रकार विनय सम्पन्नता नाम की दूसरी भावना का वर्णन किया ।२। शीलव्रतेष्वनतीचार भावना अब तीसरी शीलव्रतेष्वनतीचार भावना कहते हैं । शीलव्रतेष्वनतीचार का अर्थ राजवार्तिक में ऐसा कहा है-अहिंसादि पाँच व्रत तथा इन पाँच व्रतों को पालने के लिये क्रोधादि कषायों के त्यागरूप शील में मन-वचन-काय की जो निर्दोष प्रवृत्ति है वह शील व्रतेष्वनतीचार भावना है। आत्मा के स्वभाव का नाम शील है। आत्म स्वभाव का घात करनेवाले हिंसादि पाँच पाप हैं। उनमें कामसेवन नाम का एक ही पाप हिंसादि सभी पापों को पुष्ट करता है तथा क्रोधादि सभी कषायों को तीव्र करता है । अतः यहाँ जयमाला के अर्थ ब्रह्मचर्य की प्रधानता ही वर्णन किया हैं । यह शील दुर्गति के दुःख को हरनेवाला है, स्वर्गादि शुभगति का कारण है, व्रत-तपसंयम का जीवन हैं। शील बिना तप करना, व्रत धारण करना, संयम पालना, मृतक के शरीर समान देखने मात्र का है, कार्यकारी नहीं हैं । शीलरहित का तप - व्रत - संयम धर्म की निंदा करानेवाला है । ऐसा जानकर शील नाम के धर्म के अंग का पालन करो, चंचल मनरूपी पक्षी का दमन करो, अतिचार रहित शुद्ध शील को पुष्ट करो । मन हाथी के समान है : धर्मरूपी वन का विध्वंस करनेवाले मनरूपी मदोन्मत्त हाथी को रोकना चाहिये। चलायमान होकर मनरूपी हाथी महान अनर्थ करता है। जैसे मतवाला हुआ हाथी अपने स्थान से निकल भागता है उसी प्रकार काम से उन्मत्त हुआ मनरूपी हाथी अपने समभावरूपी स्थान से निकल भागता है, कुल की मर्यादा संतोष आदि छोड़ देता है । मदोन्मत्त हाथी तो सांकल तोड़कर भाग जाता है, यह मनरूपी हाथी सुबुद्धिरूपी सांकल तोड़कर घूमता है। हाथी तो मार्ग में चलानेवाले महावत को गिरा देता हे, कामी का मन सम्यग्धर्म के मार्ग में प्रवर्तानेवाले ज्ञान को दूर कर देता है। हाथी तो अंकुश को नहीं मानता है, मनरूपी हाथी गुरुओं के शिक्षाकारी वचनों को नहीं मानता है। हाथी तो फल व छाया देने वाले बड़े वृक्षों को उखाड़ फेंकता है, काम से उद्दीप्त मन स्वर्ग-मोक्षरूप फल को देनेवाले तथा यथारूपी सुगन्ध को फैलाने वाले, समस्त विषयों की आतप को हरनेवाले ब्रह्मचर्य रूपी वृक्ष को उखाड़ फेंकता है। हाथी तो मैल कीचड़ आदि को दूर करनेवाले सरोवर में स्नान करके मस्तक के ऊपर धूल डालता हुआ धूल से खेलता है, काम से व्याप्त मन सिद्धान्तरूप सरोवर में स्नान करके अनेक प्रकार के अज्ञानरूप मैल को धोकर के भी पापरूप धूल से खेलता है। हाथी तो कानों की चपलता दिखलाता है। काम संयुक्त मन पाँचों इंद्रियों के विषयों में चंचलता दिखलाता है । हाथी तो हथिनी में रति करता है, कामसंयुक्त मन कुबुद्धिरूपी हथिनी में रमता है। हाथी स्वच्छन्द होकर डोलता है, मन भी स्वच्छन्द होकर डोलता है । हाथी तो मद से मस्त रहता हे, कामी का मन रूपादि आठ मदों से मस्त रहता Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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