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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२४३ है। हाथी के नजदीक कोई पथिक नहीं आता है दूर ही भाग जाते हैं, काम से उन्मत्त मन के नजदीक भी कोई एक भी गुण नहीं रहता है। इसलिये इस काम से उन्मत्त मनरूप हाथी के लिये वैराग्यरूप खम्भे से बांधो, यदि यह खुला रहा तो महान अनर्थ करेगा। ये काम अनंग है, इसके पास अंग नहीं है। यह तो मनसिज है, मन में ही इसका जन्म होता है। मन का मथन करनेवाला है इसलिये इसे मनमथ कहते हैं। संवर का अरि अर्थात् वैरी है इसीलिये इसे संवरारि कहते हैं। काम से खोटा दर्प अर्थात् गर्व उत्पन्न होता है इसलिये इसे कंदर्प कहते हैं। इसके द्वारा अनेक मनुष्य-तिर्यंच परस्पर लड़कर मर जाते हैं इसलिये इसे मार कहते हैं। इसी कारण मनुष्यों में अन्य इंद्रियों के अंग तो प्रगट हैं, काम के अंग ढके हुए हैं। उत्तम पुरुष तो काम के अंग का नाम का भी उच्चारण नहीं करते हैं। इसके समान दूसरा पाप नहीं है। धर्म से भ्रष्ट करनेवाला काम ही है। इस काम ने ऋषि, मुनि, देवता, हरि, हर, ब्रह्मा आदि को भ्रष्ट करके अपने आधीन किया है। इसलिये सारे जगत को जीतनेवाला एक काम को ही कहा जाता है। इसको जीतनेवाला मोह को सहज ही जीत लेता है। इसलिये काम का त्याग करने के लिये मनुष्यनी, देवांगना, तिर्यंचनी का संसर्ग-संगति काम विकार को उत्पन्न करनेवाली जानकर दूर से ही त्याग कर दो। मन, वचन, काय से स्त्रियों में राग का त्याग करो। आप स्वयं कुशील के मार्ग पर नहीं चलना, अन्य दूसरे को कुशील के मार्ग का उपदेश नहीं देना। कोई अन्य जो कुशील के मार्ग पर चलता हो, भव्य जीव उसकी अनुमोदना नहीं करते हैं। बालिका स्त्री को देखकर उस पर पुत्रीवत् निर्विकार बुद्धि करो। यौवनरूप हाथी पर बैठी, सौदर्यरूप जल में जिसके सभी अंग जूब रहे हों, ऐसी रूपवती स्त्री में बहिन के समान निर्विकार बुद्धि करो, उसे सन्मान मत दो, बातचीत नहीं करो। जो शीलवान हैं उनकी दृष्टि स्त्रियों पर जाते ही उनके नेत्र बंद हो जाते हैं। जो स्त्रियों से वचनालाप करेगा, स्त्रियों के अंगों को देखेगा उसका शील अवश्य भंग होगा। इसलिये जो विवेकी गृहस्थ हैं उनके तो एक अपनी स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों की संगति, अवलोकन, वचनालाप का त्याग होता है तथा अन्य स्त्रियों की कथा का विचार स्वप्न में भी नहीं आता है। एकान्त में माता, बहिन, पुत्री के साथ भी नहीं रहते हैं। मुनिराज तो समस्त स्त्री मात्र का साथ ही नहीं करते हैं, स्त्रियों में उपदेश नहीं करते हैं। स्त्री के नाम ही उसके प्रकट दोषों को कहनेवाले हैं। स्त्री के समान इस जीव का बुरा करने वाला अन्य कोई बैरी नहीं है, इसलिये सज्जन लोग इसे नारी कहते हैं। दोषों को प्रत्यक्ष देखते-देखते ही ढक लेती है अतः इसे स्त्री कहते हैं। इसे देखने से पुरुष का पतन हो जाता है इसलिये इसका नाम पत्नि है। कुमरण होने का कारण है इसलिये इसका नाम कुमारी है। इसकी संगति से पौरुष, बुद्धि, बल आदि नष्ट हो जाते हैं। इसलिये इसका नाम अबला है। संसार के बंध का कारण है इसलिये इसका नाम वधु है। कुटिलता-मायाचार का स्वभाव रखती है इसलिये इसका नाम वामा है। इसके नेत्रों में कुटिलता बसती है इसलिये इसका नाम वामलोचना है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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