SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२४१ अविनयादि से आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात नहीं करना वह आत्मा का विनय है। इसी को निश्चय विनय कहते हैं, इसी को परमार्थ विनय कहा है। ___व्यवहार विनय : अब यहाँ ऐसा विशेष जानना - जिसकी मान कषाय घट जाती है उसी के व्यवहार विनय होती है। किसी जीव का मुझसे अपमान नहीं हो। जो दूसरों का सम्मान करेगा, वह स्वयं ही सम्मान को प्राप्त कर लेगा। जो दूसरों का अपमान करेगा वह स्वयं ही अपमान को प्राप्त हो जायेगा। सभी से मीठे शब्द बोलना विनय है। किसी जीव का भी तिरस्कार नहीं करना वह भी विनय ही है। अपने घर कोई आया हो उसका यथा योग्य सत्कार करना, किसी को सामने जाकर लिवा लाना, किसी को उठकर ( खड़े होकर) एक हाथ से माथा छूकर विनय करना, किसी को आइये-आइये-आइये इत्यादि तीन बार कहकर बुलाना, किसी को आदर पूर्वक नजदीक बैठाना, किसी को बैठने को स्थान देना, किसी को आओ-बैठो कहना किसी के शरीर की कुशलता पूछना हम आपके ही हैं, हमें आज्ञा करिये, यह आप ही का घर है, यह घर आपके आने से पवित्र हो गया है, ऊँचा हो गया है, आपकी कृपा हमारे ऊपर तो हमेशा से है – इस प्रकार व्यवहार विनय है। किसी को हाथ उठाकर माथे तक लगा लेना इतनी ही विनय है। अन्य भी दान सन्मान कुशल पूछना, रोगी-दुःखी की वैयावृत्य करना भी विनयवान ही के होते हैं। दुःखी मनुष्यतिर्यंचों को धैर्य, विश्वास देना, दुःख सुनना , अपनी सामर्थ्य अनुसार उपकार करना, अपने से नहीं बन सकता हो तो धीरता-संतोष आदि का उपदेश देना, वह व्यवहार विनय है। यह व्यवहार विनय परमार्थ विनय का कारण है, यश उत्पन्न कराती है, धर्म की प्रभावना करती है। वचन विनय : मिथ्यादृष्टि का भी अपमान नहीं करना, मीठे वचन बोलना, यथा योग्य आदर सत्कार करना ये ही विनय है। महापापी, द्रोही, दुराचारी को भी कुवचन नहीं कहना; एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियादि तथा सर्पादि दुष्ट जीवों की विराधना नहीं करना; उनकी रक्षा करते रहना ये ही उनकी विनय है। अन्यधर्मी के मंदिर मूर्ति आदि से बैर करके निंदा नहीं करना। इस प्रकार परमार्थ व व्यवहार दोनों प्रकार की विनय को धारण करके गृहस्थ को प्रवर्तन करना योग्य है। देखो! सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागी वीतरागी मुनिराज को भी यदि कोई मिथ्यादृष्टि वन्दना करता है तो वे उसे भी आशीर्वाद देते हैं; कोई चांडाल, भील, धीवर आदि नीच जाति का भी वन्दना करता है तो वे उसे पापक्षयोस्तु पापों का नाश हो इत्यादि आशीर्वाद देते हैं। इसलिये यदि विनय अंग धारण करते हो तो बालक, अज्ञानी, धर्म रहित, नीच-अधम जाति का कोई हो तो उसकी भी विनय करना चाहिये; विनय नहीं कर सकते हो तो भी उसका तिरस्कार-निंदा करना कभी उचित नहीं है। इस मनुष्य जन्म की शोभा विनय ही है। भगवान गणधर देव तो ऐसा कहते हैं कि विनय बिना मनुष्य जन्म की हमारी एक घड़ी भी नहीं बीते। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy