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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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परोक्ष विनय है। उनकी विनयपूर्वक वचनों द्वारा स्तुति करना वह वचन से परोक्ष विनय है। हाथों की अंजुलि जोड़कर मस्तक झुकाकर नमस्कार करना वह तन से परोक्ष विनय हैं। __जिनेन्द्र के प्रतिबिंब की परमशांत मुद्रा को प्रत्यक्ष नेत्रों से अवलोकन कर महा आनंद से मन में ध्यान कर अपने को कृतकृत्य मानना वह मन से प्रत्यक्ष विनय है। जिनेन्द्र के प्रतिबिंब के सामने होकर स्तवन करना वह वचन से प्रत्यक्ष विनय है। हाथों की अंजुलि जोड़कर मस्तक नवाकर वंदना करना तथा भूमि में अंजुलि सहित हाथ, पैरों तथा मस्तक को छुआकर नमस्कार करना वह काय से प्रत्यक्ष विनय हैं।
सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र परमात्मा के नाम का स्मरण, ध्यान, वंदन, स्तवन करना वह सब परोक्ष विनय है। देव की इस प्रकार क विनय सभी अशुभ कर्मों का नाश करनेवाली कही है।
गुरु विनय : वीतरागी निर्ग्रन्थ मुनीश्वरों को प्रत्यक्ष देखकर खड़ा हो जाना, आनंद सहित सन्मुख जाना, स्तवन करना, वंदना करना, गुरुओं को आगे कर स्वयं पीछे चलना कभी बराबरी से चलना पड़े तो स्वयं गुरु की बांयी ओर होकर चलना, गुरु को अपने दाहिनी ओर करके चलना, बैठना; गुरु के साथ में रहते हुए स्वंय उपदेश नहीं देना, कोई प्रश्न करे तो गुरु के होते हुए आप उत्तर नहीं देना, और गुरु की आज्ञा होने पर अनुकूल उत्तर देना; गुरु के होते हुए उच्च आसन पर नहीं बैठना, गुरु व्याख्यान उपदेश आदि करें तो उसे हाथ जोड़कर बहुत आदर से ग्रहण करना; गुरुओं के गुणों में अनुराग कर आज्ञा के अनुकूल प्रवर्तन करना, गुरु दूर क्षेत्र में हों तो भी जैसी उनकी आज्ञा हो उसी के अनुसार प्रवर्तन करना; दूर से ही गुरुओं का ध्यान, स्तवन, नमस्कार आदि करना गुरु की विनय है।
शास्त्र विनय : शास्त्र की विनय करना - बड़े आदर से पढ़ना, श्रवण करना; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को देखकर व्याख्यान आदि करना; शास्त्र में कहे व्रत-संयम आदि आप से धारण करते नहीं बन सके तो भी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना; शास्त्र की जैसी आज्ञा हो उसी के अनुसार कहना। जो शास्त्र की आज्ञा हो उसे एकाग्रचित्त से श्रवण करना, अन्यथा कथन नहीं करना, आदर पूर्वक मौन से श्रवण करना यदि शक्य हो तो उसे दूर करने के लिये विनयपूर्वक थोड़े शब्दों में जिस प्रकार सभा के अन्य लोगों के तथा वक्ता के क्षोभ नहीं उत्पन्न हो उस प्रकार विनय पूर्वक प्रश्न करना, उत्तर को आदर से ग्रहण करना वह शास्त्र की विनय हैं। शास्त्र को उच्च आसन पर रखकर स्वयं नीचे बैठना, प्रशंसा-स्तवन इत्यादि करना शास्त्र की विनय है। इस प्रकार देव, गुरु, शास्त्र की विनय है वह धर्म की मूल है।
निश्चय विनय : रागद्वेष द्वारा जिस प्रकार से आत्मा का घात नहीं हो उस प्रकार प्रवर्तन करना वह आत्मा का विनय है, उसे निश्चय विनय कहते हैं। वह विनयवान इस प्रकार विचार करता है कि-अब यह मेरा जीव चार गतियों में भ्रमण नहीं करे, अब मेरा आत्मा मिथ्यात्व-कषाय-अविनयादि से संसार परिभ्रमण के दुःखों को प्राप्त नहीं हो - इस प्रकार चिंतवन करते हुए मिथ्यात्व-कषाय
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