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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [२३९ उपचार विनय : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्तप – इन चार आराधनाओं का उपदेश देकर मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करानेवाले, तथा जिनका स्मरण करने से परिणामों का मैल दूर होकर विशुद्धता प्रकट हो जाती है ऐसे पंच परमेष्ठी के नाम की स्थापना की विनय, वन्दना, स्तवन करना वह उपचार विनय है। उपचार विनय के अन्य भी बहुत भेद हैं। ___ लोक विनय : अभिमान छोड़कर, आठ मदों का जिसके अत्यन्त अभाव हो गया, कठोरता छूटकर जिसके कोमलता प्रकट हो गई उसके नम्रपना प्रकट होता है, उसके सत्यार्थ ऐसा विचार होता है कि – ये धन, यौवन, जीवन क्षणभुंगर है, कर्म के आधीन है, कोई हमसे दुःखी न हो, सभी संबंध वियोग सहित हैं, यहाँ कितने समय तक रहना है, प्रति समय मृत्यु की ओर अखण्ड धाराप्रवाहरूप से जा रहा हूँ, किसी पदार्थ का संबंध स्थिर नहीं है। यहाँ भगवान ने मनष्य जन्म का सार विनय धर्म को ही कहा है। यह विनय संसाररूपी वृक्ष को जलाने के लिये अग्नि है। यह विनय तीनलोक में प्रधान है। यह विनय तीनलोक के जीवों के मन को उज्ज्वल करनेवाली है। विनय ही समस्त जिनशासन की मूल है। विनय रहित को जिनेन्द्र की शिक्षा ग्रहण नहीं होती है। विनय रहित जीव सभी दोषों का पात्र है। मिथ्याश्रद्धान के छेदने को विनय शूल है। विनय बिना मनुष्यरूप चमड़े का वृक्ष मानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो जाता है। मान कषाय द्वारा यहीं पर घोर दुःख सहता है तथा परलोक में निंद्यजाति, निंद्यकुल में बुद्धिहीन–बलहीन होकर उत्पन्न होता है। जो अभिमानी यहाँ किंचिन्मात्र भी वचन नहीं सहते हैं वे तिर्यंचगति में नाक में मूंज की रस्सी का बंधन, लादन, मारण, लात की ठोकरों की मार, मरम स्थान में चमड़े के कोड़े की मार, पराधीन होकर भोगते है, तथा चांडाल आदि के मलिन घरों में बंधनों से बंधे रहते हैं जिन के ऊपर मैला आदि निंद्य वस्तुएँ लादते हैं। इस लोक में भी अभिमानी का समस्त लोक बैरी हो जाता है। अभिमानी की सभी निंदा करते हैं, महान् अपयश प्रकट होता है। सभी लोग अभिमानी का पतन चाहते हैं। मान कषाय से क्रोध प्रकट होकर, कपट फैलता है, लोभ बढ़ता है, खोटे वचनरूप प्रवृत्ति होती है। लोक में जितनी अनीति हैं वे सभी मान कषाय से होती हैं। पराधन हरण आदि भी अपने अभिमान को पुष्ट करने को करता है। इस जीव का बड़ा बैरी मान कषाय है। अतः विनयगुण का बहुत आदर करके अपने दोनों लोक उज्ज्वल करो। वह विनय देव की, गुरु की, शास्त्र की , मन-वचन-काय से प्रत्यक्ष करो और परोक्ष भी करो। देव विनय : देव अर्थात् अर्हन्त भगवान, समोशरण की विभूति सहित, गंधकूटी के मध्य में सिंहासन के ऊपर चार अंगुल अधर विराजमान, चौंसठ चमर ढोरित, तीन छत्र-आठ प्रातिहार्य से विभूषित, कोटि सूर्य समान प्रभा के धारी, परम औदारिक शरीर में रहने वाले, बारह सभाओं से सेव्यमान, दिव्यध्वनि द्वारा अनेक भव्य जीवों का भला करनेवाले, अरहन्त का चितवन कर ध्यान करना वह मन से उनकी Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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