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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २३८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार को दण्ड पाने योग्य कर दूँ, बहुत दिनों से रोक रखे धन को निकाल लूँ, धर्म छुड़ाकर उल्टा श्रद्धान करा दूं। प्राणियों के वशीकरण, अनेक जीवों का मारण, अनेक प्रकार के जल में गमन करने के, जमीन पर गमन करने के, आकाश में गमन करने के यन्त्रादि बना देना इत्यादि अनेक कला चातुर्य हैं वे सब कुज्ञान हैं। इनका गर्व करना नरक के घोर दुःखों का कारण है। कला चातुर्य तो यदि सम्यक् हो तो वह शोभनीय है। अपने आत्मा को विषय कषायों के उलझाव से सुलझाना तथा लोगों को हिंसा रहित सत्य मार्ग में प्रवर्तन कराना ही उत्तम कला इस प्रकार सच्चे वस्तु स्वरूप को समझ कर जाति, कुल , ऐश्वर्य, रूप, श्रुत, तप, बल , विज्ञान आदि को कर्म के आधीन जानकर इनका मद छोड़कर दर्शन विशुद्धता करो। तीन मूढता, आठ शंकादि दोष, छह अनायतन, आठ मद इन पच्चीस दोषों का परित्याग करने से सम्यग्दर्शन की उज्ज्वलता हो जाती सम्यग्दर्शन की उज्ज्वलता हो जाती है। ऐसा जानकर निरन्तर दर्शन विशुद्धि भावना का ही चिन्तवन करना, इसी को ध्यानगोचर करके स्तुति सहित उज्ज्वल अर्घ उतारण करना वही मुक्तिरमणी से संबंध करना है। इस प्रकार दर्शन विशुद्धता नाम की प्रथम भावना का वर्णन किया ।। विनय सम्पन्नता भावना अब आगे विनय सम्पन्नता नाम की दूसरी भावना कहते हैं। विनय पाँच प्रकार की कही हैं - दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय, उपचार विनय। दर्शन विनय : अपने श्रद्धान में शंकादि दोष नहीं लगाना तथा सम्यग्दर्शन की विशुद्धता से ही अपना जन्म सफल मानना, सम्यग्दर्शन के धारकों में प्रीति रखना, आत्मा तथा पर का भेदविज्ञान कर आत्मा का अनुभव करना दर्शन विनय है। ज्ञान विनय : सम्यग्ज्ञान के आराधन में उद्यम करना, सम्यग्ज्ञान के कथनों का आदर करना, सम्यग्ज्ञान के कारण जो अनेकान्त रूप जिनशास्त्र हैं उनके श्रवण-पठन में बहुत उत्साह रूप होना तथा वन्दना-स्तवन पूर्वक बहुत आदर पूर्वक पढ़ना वह ज्ञान विनय है। ज्ञान के आराधक ज्ञानीजनों का तथा जिनागम की पुस्तकों की प्राप्तिरूप संयोग का बड़ा लाभ मानना, सत्कार-आदर आदि करना, वह सब ज्ञान विनय है। चारित्र विनय : अपनी शक्ति प्रमाण चारित्र धारण करने में हर्ष मानना, दिनों दिन चारित्र की उज्ज्वलता के लिये विषय-कषायों को घटाना तथा चारित्र के धारकों के गणों में अनुराग, स्तवन , आदर करना वह चारित्र विनय है। तप विनय : इच्छाओं को रोककर, प्राप्त हुए विषयों में संतोष करके, ध्यान स्वाध्याय में उद्यमी होकर, काम को जीतने के लिये तथा इंद्रियों के विषयों में प्रवृत्ति रोकने के लिये अनशन आदि तप में उद्यम करना तप विनय है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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