SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [२३७ रूपमद त्याग : रूप का मद नहीं करो। यह विनाशीक पुद्गल का रूप आत्मा का स्वरूप नहीं है, विनाशीक है, क्षण-क्षण में नष्ट हो जाता है। इस रूप को रोग, वियोग, दारिद्र, वृद्धावस्था महाकुरूप कर देगी। ऐसे हाड़-चाम के रूप में रागी होकर मद करना बड़ा अनर्थ है। इस आत्मा का रूप तो केवल ज्ञान है जिसमें लोक-अलोक सभी पदार्थ प्रतिबिंबित होते हैं। इसलिये इस चमड़ी में अपनापन छोड़कर अपने त्रिकाली अविनाशी ज्ञान स्वरूप में अपनापन करो। ___ शास्त्रमद त्याग : शास्त्रज्ञान-श्रुतज्ञान का गर्व नहीं करना चाहिए। आत्मज्ञान रहित का श्रुतज्ञान निष्फल है, क्योंकि ग्यारह अंग का ज्ञानधारी होकर के भी अभव्य संसार ही में परिभ्रमण करता है। सम्यग्दर्शन बिना अनेक व्याकरण, छन्द, अलंकार, काव्य, कोष आदि का पढना विपरीत धर्म में अभिमान और लोभ में प्रवर्तन कराकर संसार रूप अंधकप में डुबोनेवाला ही जानना। इस इंद्रियजनित ज्ञान का क्या गर्व करना है ? एक क्षण में वात, पित्त, कफ आदि के घटने-बढ़ने से चलायमान हो जाता है। इंद्रियजनित ज्ञान तो इंद्रियों के विनाश के साथ ही नष्ट हो जाता हे। मिथ्याज्ञान तो जैसे-जैसे बढ़ता है तैसे-तैसे खोटे काव्य खोटी टीका आदि की रचना में प्रवर्तन अनेक जीवों को दराचार में प्रवर्तन कराकर संसार समुद्र में डुबो देगा। अतः श्रुतज्ञान का मद छोड़ो। ज्ञान पाकर के आत्म विशुद्धता करो। ज्ञान पाकर अज्ञानी के समान आचरण करके संसार में भ्रमण करते रहना योग्य नहीं है। तपमद त्याग : सम्यक्त्व बिना मिथ्यादृष्टि का तप निष्फल है। जो तप का ऐसा मद करता है कि - में बड़ा तपस्वी हूँ, वह तप के मद के प्रभाव से बुद्धि को नष्ट करके दुर्गति में परिभ्रमण करेगा। अतः तप के गर्व को महान् अनर्थ का कारण जानकर भव्य जीवों को तप का गर्व करना उचित नहीं है। ____ बलमद त्याग : जिस बल से कर्मरूप बैरी को जीता जाता है; काम, क्रोध, लोभ को जीता जाता है, वह बल तो प्रशंसा योग्य है। देह का बल, यौवन का बल, ऐश्वर्य का बल पाकर के अन्य निर्बल अनाथ जीवों को मार डालना, ठगलेना, धन छीनलेना, जमीनजीविका छीनलेना, कुशील सेवन करना, दुराचार में प्रवर्तन करना वह बल प्रशंसा योग्य नहीं है। वह बलमद तो नरक के घोर दुःखों को असंख्यात काल तक भोगाकर तिर्यंचगति में मारण, ताड़न , लादन द्वारा तथा दुर्वचन, क्षुधा, तृषा आदि के अनेक दुःख अनेक पर्यायों में भोगाकर एकेन्द्रियों में समस्त बल रहित असमर्थ कर देगा। अतः बल का मद छोड़कर क्षमा धारण करके उत्तम तप करना योग्य है। विज्ञान मद : विज्ञान अर्थात् अनेक हस्तकला , अनेक वचन कला , अनेक मन के विकल्प जिन से यह आत्मा चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करके दुःख भोगता है वे सभी कुज्ञान हैं। इस संसार में खोटी कला चतुरता का बड़ा गर्व है। मेरी सामर्थ्य तो ऐसी है कि - सच्चे को झूठा कर दूं, झूठे को सच्चा कर दूँ, कलंक रहित को कलंक सहित कर दूँ, शीलवन्तों को दूषित कर दूँ, अदण्डनीय Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy