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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२३६]
मिथ्याशास्त्रों के पढ़नेवाले, उनकी सेवा-भक्ति करनेवाले एकांती हैं, धर्म के स्थान नहीं हैं, अतः वे अनायतन हैं।
इस प्रकार कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र तथा इनकी सेवा भक्ति करनेवाले -इन छहों में सम्यकधर्म नहीं है, ऐसा दृढ़, श्रद्धान करने से दर्शन विशुद्धता होती है।
अष्टमद त्याग : जातिमद, कुलमद, ऐश्वर्यमद, रूपमद, शास्त्रमद, तपमद, बलमद, विज्ञानमद-इन आठ मदों का जिसके अत्यन्त अभाव होता है उसके दर्शन विशुद्धता होती है।
जातिमद त्याग : सम्यग्दृष्टि के ऐसा सच्चा विचार होता है : हे आत्मन् ! यह उच्च जाति है वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है, यह तो कर्म का परिणमन है, परकृत है, विनाशीक है कर्मों के आधीन है। माता के वंश को जाति कहते हैं। संसार में अनेक बार अनेक जाति पाई हैं। यह जीव अनेकबार चांडाली के, भीलनी के, म्लेच्छनी के, चमारी के, धोबिन के, नाईन के, डोमनी के, नटनी के, वेश्या के, दासी के, कलारिन के, धीवरी आदि मनुष्यनी के गर्भ में उत्पन्न हुआ है। अनन्तबार नीच जाति में उत्पन्न होने के बाद एक बार उच्च जाति पाता है। इसी प्रकार से अनन्तबार उच्च जाति भी पाई है, तो भी संसार परिभ्रमण ही करता रहा। इसलिये जाति का मद नहीं करना चाहिये।
कुल मद त्याग : पिता के वंश को कुल कहते हैं। ऊँच-नीच कुल भी अनन्तबार प्राप्त हुआ है। संसार में जाति का, कुल का मद कैसे किया जा सकता है ? स्वर्ग के महान ऋद्धिधारी देव मरकर एकेन्द्रिय में आकर उत्पन्न हो जाते हैं, श्वान आदि निंद्य तियँचों में उत्पन्न हो जाते हैं, तथा उत्तम कुल के धारी होकर भी चांडाल आदि में उत्पन्न हो जाते हैं। अतः जाति कुल में अहंकार करना मिथ्यादर्शन है। हे आत्मन् ! तुम्हारा जाति-कुल तो सिद्धों के समान है। तुम अपना स्वरूप भूलकर माता के रज पिता के वीर्य से उत्पन्न जाति-कुल में मिथ्या एकत्व करके पुनः संसार में अनंतकाल तक के लिये निगोद निवास की तैयारी नहीं करो। वीतरागी का उपदेश ग्रहण किया है तो इस देह की जाति को भी संयम, शील, दया, सत्यवचन आदि द्वारा सफल करो। जब मैंने उत्तम जाति-कुल पाया है तो नीच जातिवालों के समान हिंसा, असत्य, परधन हरण, कुशील सेवन, अभक्ष्य-भक्षण आदि अयोग्य आचरण कैसे करूँ ? नहीं करना चाहिये, नहीं करूँगा। ऐसा अहंकार करना योग्य है ? सम्यग्दृष्टि के कर्मकृत पुद्गल पर्याय में कभी आत्मबुद्धि नहीं होती है।
ऐश्वर्यमद त्याग : ऐश्वर्य पाकर उसका मद कैसे किया जा सकता है ? यह ऐश्वर्य तो अपनी आत्मा का स्वरूप भुलाकर बहुत आरम्भ, राग, द्वेष आदि में प्रवृत्ति कराकर चतुर्गति में परिभ्रमण का कारण है। निर्ग्रन्थपना तीनलोक में ध्याने योग्य है, पूज्य है। यह ऐश्वर्य क्षणभुंगर है, बड़े-बड़े इन्द्र-अहमिन्द्रों का ऐश्वर्य भी पतन सहित है। बलभद्र-नारायण का भी ऐश्वर्य क्षणमात्र में नष्ट हो गया, अन्य जीवों का तो कितना-सा ऐश्वर्य है ? ऐसा जानकर यदि दो दिन के लिये ऐश्वर्य पाया है तो दुःखित जीवों के उपकार में लगाओ, विनयवान होकर दान दो। परमात्मस्वरूप अपना ऐश्वर्य जानकर इस कर्मकृत ऐश्वर्य से विरक्त होना ही योग्य है।
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