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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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अपने लाभ के लिये, कार्य सिद्धि के लिये इस प्रकार प्रार्थना करना - यदि मुझे इतना लाभ हो जाय, संतान का रोग मिट जाय, संतान उत्पन्न हो जाय, वैरी का नाश हो जाय तो मैं आप को छत्र चढ़ाऊँगा, इतना धन भेंट करूँगा, इस प्रकार वायदा करके देवता को
( रिश्वत ) देकर कार्यों की सिद्धि चाहना ।
रतजगा (जागरण) करना; कुल देवता को पूजना; शीतला को पूजना; लक्ष्मी को, सोने, चाँदी को पूजना; कलम-दवात पूजना; पशुओं को पूजना; अन्न को, जल को पूजना; शस्त्र को, वृक्ष को, अग्नि को देवता मानकर पूजना वह सब लोकमूढ़ता है; मिथ्यादर्शन के प्रभाव से श्रद्धान का विपरीतपना है, जो सभी त्यागने योग्य ही है।
देवमूढ़ता त्याग : देव - कुदेव का विचार रहित होकर कामी, क्रोधी, शस्त्रधारी, परिग्रही में भी ईश्वरपने की बुद्धि करना कि ये भगवान परमेश्वर हैं, विश्व की समस्त रचना इन्हीं की रची हुई है, ये ही कर्ता धर्ता हैं, जगत में जो कुछ होता है वह सब इन ईश्वर का किया हुआ ही होता है, समस्त ही अच्छा या बुरा लोगों द्वारा ईश्वर के कराये बिना कुछ भी नहीं होता है, सब कुछ ईश्वर की इच्छा के आधीन होता है शुभ कर्म हो या अशुभ कर्म ईश्वर की प्रेरणा के बिना नहीं होता है इत्यादि अनेक प्रकार के ये सभी परिणाम मिथ्यादर्शन के उदय से होते हैं, देवमूढ़ता हैं।
गुरुमूढ़ता त्याग : पाखण्डी, हीन आचार के धारक, परिग्रही, लोभी, विषयों के लोलुपी को करामाती मानना; उसके वचन सत्य - सिद्ध मानना; ये प्रसन्न हो जायेंगे तो हमारे इच्छित सभी कार्य सिद्ध (पूर्ण) हो जायेंगे; ये तपस्वी हैं, पूज्य हैं, महापुरुष हैं, प्रसिद्ध हैं इत्यादि विपरीत श्रद्धान करना वह गुरुमूढ़ता है। जिसके परिणामों में इन तीन मूढ़ताओं का लेशमात्र नहीं होता है। उसके दर्शनविशुद्धता होती है।
षट् अनायतन त्याग : छह अनायतनों का त्याग करने से दर्शनविशुद्धता होती है। कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र व इनके सेवन करनेवाले, ये छह धर्म के आयतन अर्थात् स्थान नहीं हैं, इसलिये ये अनायतन हैं।
रागी, द्वेषी, कामी, क्रोधी, लोभी, शस्त्रादि सहित, परिग्रही जो मिथ्यात्व सहित हैं उनमें सच्चा धर्म नहीं पाया जाता है, इसलिये वे कुदेव हैं, अनायतन हैं।
पाँच इंद्रियों के विषयों के लोलुपी, परिग्रह के धारी, आरंभ करने-करानेवाले, भेषधारी धर्महीन हैं, गुरु नहीं हैं, अतः वे अनायतन हैं।
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हिंसा के आरंभ की प्रेरणा देनेवाले, रागद्वेष - कामादि दोषों को बढ़ानेवाले, सर्वथा एकान्त के प्ररूपक शास्त्र हैं, वे कुशास्त्र हैं, धर्म रहित हैं अतः वे अनायतन हैं।
देवी, दिहाड़ी क्षेत्रपाल आदि देवों को वन्दनेवाले धर्म रहित हैं, अतः वे अनायतन हैं।
कुगुरुओं की भक्ति पूर्वक सेवा करनेवाले धर्म रहित हैं, अतः वे अनायतन हैं।
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