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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
इस प्रकार धर्म का उपदेश देकर धर्म में दृढ़ करना। शीघ्र ही अनित्य, अशरण आदि भावनाओं का चितवन कराना – ग्रहण कराना, यदि त्यागवत आदि छोड़ दिये हों तो पुन: ग्रहण कराना। शरीर का मर्दनादि करके दुःख दूर करना, कोई सेवा टहल करने वाला नहीं हो तो आप स्वयं टहल करना, अन्य साधर्मियों का साथ मिला देना, आहार पानी दवा आदि करके स्थितिकरण करना। मल, मूत्र, कफ आदि आ गया हो तो धोना, पोंछना इत्यादि करके स्थिर करना, दारिद्र आदि से चलायमान हुआ हो तो उसकी भोजन-पानादि द्वारा आजीविका लगा देना, उपसर्ग-परीषह आदि दूर करके सच्चे धर्म में स्थापित करना, ऐसा स्थितिकरण अंग सम्यग्दृष्टि के होता ही है।
वात्सल्य गुण : वात्सल्य नाम का गुण सम्यग्दृष्टि के होता ही है। संसारी जीवों के अपने स्त्री पुत्रादि में, इंद्रियों के विषय भोगों में, धन कमाने में प्रीति बहुत रहती ही है। स्त्री, पुत्र, धन, परिग्रह, विषय आदि को संसार परिभ्रमण के कारण जानकर, अंतरंग में विरागता धारण करके धर्मात्मा में, रत्नत्रय के धारक मुनि, अर्जिका , श्रावक , श्राविका में व धर्म के आयतनों में जिसकी अत्यन्त प्रीति होती है उसके सम्यग्दर्शन का वात्सल्य अंग होता ही है।
प्रभावना गुण : अपने मन से, वचन से, काय से, से, धन से, दान से, व्रत से, तप से , भक्ति से रत्नत्रय का प्रभाव प्रकट करना वह मार्ग प्रभावना अंग है। इसका विशेष वर्णन प्रभावना अंग की भावना में करेंगे।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन के आठ अंग धारण करने से इन गुणों के प्रतिपक्षी शंकादि आठ दोषों का अभाव होने से दर्शन विशुद्धता होती है। इन गुणों को धारण करने से पवित्र उज्ज्वल दर्शन विशुद्धता नाम की भावना होती है।
लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता के परिणामों को छोड़कर श्रद्धान को उज्ज्वल करना।
लोकमूढ़ता त्याग : लोकमूढ़ता का स्वरूप इस प्रकार का है – मृतक के हाड़, नखादि गंगा में पहुँचाने से मृतक की मुक्ति हुई मानना; गंगाजल को उत्तम मानना, गंगा स्नान में नदी स्नान में, समुद्र की लहर से स्नान में धर्म मानना; मृतक पति के साथ जीवित स्त्री तथा दासी को अग्नि में जलकर मर जानेवाली को सती मानकर पूजना; मरे हुये पूर्वजों को पितर मानकर पूजना; पितरों को पत्तों में स्थापित करके पहिनना; सूर्य, चंद्र, मंगल आदि ग्रहों को सोने-चाँदी के बनवाकर गले में पहिनना; ग्रहों का दोष दूर करने को दान देना; संक्राति, व्यतिपात, सोमवती अमावस मानकर दान देना; सूर्य-चंद्र को ग्रहण लगने पर स्नान करना। डाभ को शुद्ध मानना, हाथी के दाँतों को शुद्ध मानना, कुआ पूजना, सूर्य-चन्द्रमा को अर्घ देना, देहरी पूजना, मूसल पूजना, छींक पूजना, गणेश (विनायक) पूजना, दीपक की ज्योति पूजना, चोटी-जडूला रखाना, देवता की बोलारी बोलना, देवता को भेंट चढ़ाने के वायदे को पूरा करते रहने से अपनी संतानों को जीवित मानना, संतान को देवता के द्वारा दी हुई मानना।
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