SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [२२९ ये सच्चे श्रद्धान को मलिन तीन मूढ़ता, आठ मद, छह अनायतन, शंकादि आठ दोष करने वाले पच्चीस दोष हैं, इनका दूर से ही त्याग करो । १ । पाँच प्रकार की विनय, जैसी भगवान के परमागम में कही है उस प्रकार करना चाहिये । दर्शन विनय ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय, उपचार विनय - ये पाँच प्रकार की विनय भगवान जिनेन्द्र ने जिनशासन का मूल कहा है। जहाँ पाँच प्रकार की विनय नहीं है वहाँ जिनेन्द्र के धर्म की प्रवृत्ति ही नहीं है। इसलिये जिनशासन का मूल विनय रूप ही रहना योग्य है । २ । - अतिचार रहित शील को पालना चाहिये । शील को मलिन नहीं करना चाहिये । उज्ज्वल शील ही मोक्ष के मार्ग का बड़ा सहायक है। जिसके उज्ज्वलशील है उसको मोक्ष के मार्ग में इंद्रियाँ, विषय, कषाय, परिग्रह आदि विघ्न नहीं कर सकते हैं | ३ | इस दुर्लभ मनुष्य जन्म में प्रतिक्षण ज्ञानोपयोगरूप ही रहना चाहिये । सम्यग्ज्ञान बिना एक क्षण भी व्यतीत नहीं करो। जो अन्य संकल्प - विकल्प संसार में डूबोनेवाले हैं, उनका दूर ही से परित्याग करो |४| धर्मानुराग पूर्वक संसार, शरीर, भोगों से वैराग्यरूप संवेगभावना का हमेशा मन में चिंतवन होना चाहिये। उससे सभी विषयों में अनुराग का अभाव होता है तथा धर्म में व धर्म के फल में अनुराग रूप दृढ़ प्रवर्तन होता है ।५। अंतरंग में आत्मा के घातक लोभादि चार कषायों का अभाव करके अपनी शक्ति अनुसार सुपात्रों के रत्नत्रयादि गुणों में अनुराग करके चार प्रकार के दान में प्रवृत्ति करनी चाहिये ।६। अंतरंग-बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रह में आसक्ति छोड़कर समस्त विषयों की इच्छा का अभाव करके अत्यन्त कठिन तप को अपनी शक्ति अनुसार करना चाहिये ।७। चित्त में रागादि दोषों का निराकरण करके परम वीतरागतारूप साधु के समान समाधि धारण करना चाहिये ॥८ ॥ संसार के दुःख आपदाओं का निराकरण करनेवाला दश प्रकार का वैयावृत्य करना चाहिये ।९। अरहन्त के गुणों में अनुराग रूप भक्ति को धारण करते हुये अरहन्त के नामादि का ध्यानकर अरहन्त भक्ति करनी चाहिये | १० | पाँच प्रकार के आचार को जो स्वयं आचरण करते हैं, अन्य शिष्य - मुनियों को कराते हैं, दीक्षा शिक्षा देने में निपुण, धर्म के स्तंभ, ऐसे आचार्य परमेष्ठी के गुणों में अनुराग करना वह आचार्य भक्ति है | ११ | निरन्तर ज्ञान में प्रवर्तन करनेवाले, करानेवाले, स्वयं सम्यग्ज्ञान का पठन करते हैं, अन्य शिष्यों को पढ़ाते हैं, चारों अनुयोगों ज्ञान के पारगामी अंग - पूर्व- श्रुत के धारी उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना वह बहुश्रुत भक्ति है ।१२ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy