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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार सोलह कारण पूजन की जयमाला का अर्थ - अब यहाँ सोलह कारण पूजन की जयमाला के अर्थ को पढ़ने से महान पुण्य का उपार्जन होता है, इसलिये उस जयमाला के अर्थ को भावों की विशुद्धि व अशुभ भावों के नाश के लिये लिखते हैं। प्रथम समुच्चय जयमाला का अर्थ लिखते हैं।
अर्थ :- हे! संसार समुद्र से तारनेवाली, कुगति का निवारण करनेवाली, हे तीर्थंकर लब्धि को धारण करनेवाली, हे शिव-निर्वाण की कारण, हे सोलह कारण, मैं तुम्हारे लिये नमस्कार करके तुम्हारा स्तवन करता हूँ और अपनी शक्ति को प्रकट करता हूँ। ___ भावार्थ :- जिसके सोलह कारण भावनायें हो जाती हैं, वह नियम से तीर्थंकर होकर संसार समुद्र से तिर ही जाता है, ऐसा नियम है। सोलह कारण भावनायें जिसके होती हैं उसका कुगति गमन नहीं होता है। कोई तो विदेह क्षेत्रों में गृहस्थपने में सोलहकारण भावना केवली-श्रुतकेवली के निकट भाकर उसी भव से देवों द्वारा तपकल्याण, ज्ञान कल्याण, निर्वाण कल्याण मनाये जाकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। कोई पूर्व जन्म में केवली-श्रुतकेवली के निकट सोलहकारण भावना भाकर सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के अहमिन्द्रों में उत्पन्न होकर. फिर मनष्य होकर तीर्थंकर होकर, निर्वाण प्राप्त करते हैं। किसी ने पर्व जन्म में मिथ्यात्व अवस्था में नरक की आयु का बंध किया, फिर केवली-श्रुतकेवली की शरण पाकर सम्यक्त्व ग्रहण करके सोलहकारण भावना भाते हुए नरक जाकर, वहाँ से निकलकर तीर्थंकर होकर निर्वाण प्राप्त करते हैं।
जो पूर्वजन्म में सोलहकारण भावना भाकर तीर्थंकर प्रकृत्ति बांधते हैं उनके पाँच कल्याण की महिमा होती है। जो विदेह क्षेत्रों में गृहस्थपना में तीर्थंकर प्रकृत्ति बांधते हैं, वे उसी भव में तप, ज्ञान, निर्वाण इन तीन कल्याणों की इन्द्रादि द्वारा पूजन पाकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
कोई विदेह क्षेत्रों में मुनि के व्रत धारण करने के बाद केवली-श्रुतकेवली के निकट सोलहकारण भावना भाकर उसी भव में तीर्थंकर होकर ज्ञान, निर्वाण दो कल्याण की पूजा को प्राप्त होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। वे दीक्षा पहले ही ले लेते हैं, सोलहकारण भावना बाद में भाकर तीर्थंकर प्रकृत्ति बांधते हैं, इसलिये उनका तप कल्याण नहीं होता है।
जिसको तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है वह भवनत्रिक देवों में, खोटे मनुष्यों में, नीच कुलवाले , विकृत अंगवाले, अम्पायु, दरिद्री, तिर्यंचों में, भोगभूमि में , स्त्री में, नपुंसक में, एकेन्द्रिय से विकल चतुष्कादि पर्यायों में नहीं उत्पन्न होते हैं, तीसरे नरक से नीचे नहीं जाते हैं। इस प्रकार सोलह कारण भावना कुगति का निवारण करनेवाली है। सोलह कारण भावना भाने के बाद तीसरे भव में निर्वाण होता ही है, अतः शिव का कारण है। तीर्थंकरत्व ऋद्धि सोलहकारण भावना भाने से ही उत्पन्न होती है, इसलिये हे सोलह कारण भावना! मैं तुम्हे नमस्कार करके स्तवन करता हूँ।
हे भव्यजीव! इस दुर्लभ मनुष्य जन्म में पच्चीस दोष रहित दर्शनविशुद्ध नाम की भावना भावो। सम्यग्दर्शन का नाश करनेवाले दोषों का त्याग करने में ही सम्यग्दर्शन की उज्ज्वलता है।
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