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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ]
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विनष्ट हो जाता है। यह शरीर धोते-धोते हुए भी मैल को ही उगलता है, सुगंध, इत्र, फुलेल लगाते लगाते हुए भी दुर्गन्ध का वमन करता है; पोषते - पोषते हुए भी बलवान नहीं होता है; संवारते–संवारते हुए भी दिन - दिन भद्दा होता जाता है; सुधारते - सुधारते हुए भी दिनदिन बदसूरत होता जाता है; सुख देते-देते हुए भी दुःखी हो जाता है; मंत्र जपते-जपते हुए भी निरन्तर भयभीत रहता है; दीक्षारूप रहते-रहते हुए भी साधुओं के मार्ग को दूषित कर देता हैं। शिक्षा देते-देते हुए भी गुणों में अनुराग नहीं करता है; दुःख भोगते-भोगते हुए भी कषायों की उपशान्तता को प्राप्त नहीं होता है; रोकते - रोकते हुए भी पापों में ही प्रवर्तन करता है; प्रेरणा करते-करते हुए भी धर्म को धारण नहीं करता है ।
मालिश करते-करते हुए भी दिन - दिन कठोर कर्कश होता जाता है, पोंछते -पोंछते हुए भी गीला बना रहता है; सुगंधित तेल आदि लगाते-लगाते हुए भी दुर्गन्ध देता रहता है; चंदनादि को लेपते-लेपते हुए भी पित्त से जलता रहता है; सुखाते - सुखाते हुए भी कफ से गलता रहता है; साफ करते-करते हुए भी कोड़ आदि रोगों से मैला हो जाता है; चमड़े से बंधा हुआ है तो भी क्षीण होता चला जाता है; रक्षा करते-करते हुए भी मृत्यु के मुख में प्रविष्ट हो जाता है।
शरीर का ऐसा निंद्य स्वभाव विचारने से शरीर में राग भाव नष्ट हो जाता है। इसलिये जगत का स्वभाव निर्वेग-भयरूप तथा काय का स्वभाव संवेग - वैराग्य के लिये चिंतवन करना श्रेष्ठ है।
सोलह कारण भावना : सोलह कारण भावना भी श्रावक के भाने योग्य हैं। सोलह कारण भावना भाने का फल तीर्थंकरपना है। इनके द्वारा ही तीर्थंकर प्रकृत्ति का बंध अव्रती सम्यग्दृष्टि को भी होता है, देशव्रती श्रावक को भी होता है, तथा प्रमत्त - अप्रमत्त संयम मुनि को भी होता है। तीर्थंकर प्रकृत्ति सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति है, इससे ऊँची पुण्य प्रकृति तीन लोक में दूसरी नहीं है। गोमट्टसार कर्मकांड में कहा है
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पढमुवसमिये सम्मे सेसतिये अविरदादि चत्तारि ।
तित्थयर बंध पारं भया णरा केवलिदुगंते ।। ९३ ।।
अर्थ :- तीर्थंकर प्रकृति के बंध का प्रारंभ कर्मभूमि के मनुष्य पुरुषलिंग धारी के ही होता हे, अन्य तीन गतियों में आरंभ नहीं होता है । केवली - श्रुतकेवली के चरणारविंद के समीप में ही होता है। केवली श्रुतकेवली की निकटता के बिना तीर्थंकर प्रकृति के बंध के योग्य परिणामों की विशुद्धि नहीं होती है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध प्रथमोपशम सम्यक्त्व में होता है तथा शेषत्रिक जो द्वितीयोपशम, क्षयोपशम, क्षायिक इन चारों ही सम्यक्त्व वालों को होता है। अविरत, देशविरत, प्रमत्त तथा अप्रमत्त इन चारों ही गुणस्थानों में होता है।
इस तीर्थंकर प्रकृतिबंध का कारण सोलह कारण भावनायें हैं। ये भावनायें समस्त पाप का क्षय करनेवाली, भावों की अशुद्धिरूप मल को विध्वंस करनेवाली, श्रवण-पठन करतेकरते संसार के बंध को छेदनेवाली हैं, जो निरन्तर ही भाने योग्य हैं।
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