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________________ २२६] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार संसार का स्वरूप : यह जगत लोक कहलाता है, वह अनादिनिधन है । अर्द्ध मृदंग के ऊपर एक मृदंग रख देने से, डेड़ मृदंग जैसे आकार वाला यह लोक है। चौदह राजू ऊँचा है। दक्षिण-उत्तर सर्वत्र सात राजू चौड़ा है। पूर्व - पश्चिम में सबसे नीचे सात राजू चौड़ा है, फिर ऊपर की ओर क्रम से घटता हुआ सात राजू की ऊँचाई तक जाकर एक राजू चौड़ा रह गया है; फिर ऊपर की ओर क्रम से बढ़ता हुआ साढ़े तीन राजू की ऊँचाई तक गया, वहाँ पाँच राजू चौड़ा हो गया है, फिर आगे क्रम से घटता हुआ साढ़े तीन राजू की ऊँचाई तक गया जहाँ लोक का अंत है, वहाँ पर एक राजू चौड़ा है। इस प्रकार पूर्व-पश्चिम क्रम से घटती-बढ़ती-घटती चौड़ाई जाननी । ऐसे आकारवाले लोक के एक राजू चौड़े, एक राजू लम्बे, एक राजू ऊँचे खण्डों की कल्पना करें तो कुल तीन सौ तैतालीस खण्ड होते है। इस लोक रूपी क्षेत्र में अनंतानंत काल परिभ्रमण करते हुये बीत गया है। ऐसा कोई पुद्गल शेष नहीं रहा जो शरीररूप से धारण नहीं किया हो; तीन सौ तैतालीस राजू प्रमाण क्षेत्र में ऐसा कोई एक प्रदेश भी बाकी नहीं रहा, जहाँ अनन्तानन्त बार इस जीव ने जन्ममरण नहीं किया हो । उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी काल के बीस कोड़ा - कोड़ी सागर में ऐसा कोई काल का एक समय बाकी नहीं रहा जिसमें इस जीव ने जन्म-मरण नहीं किया हो । नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव इन चार गतियों में जघन्य आयु से लेकर उत्कृष्ट आयु तक समयोत्तर ऐसी कोई पर्याय बाकी नहीं रही जिसे अनंतबार नहीं पाया हो । ज्ञानावरणादि समस्त कर्मों की मिथ्यादृष्टि के बन्ध होने योग्य जघन्य स्थिति अंतः कोटा-कोटि सागर प्रमाण है; उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय इन चार कर्मों की तीस कोटा - कोटि सागर प्रमाण की है; मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोटा–कोटि सागर प्रमाण है, नामकर्म, गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोटा - कोटि सागर प्रमाण हैं; आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर की है। जघन्य स्थिति से प्रारंभ करके एक-एक समय बढ़ाते हुए उत्कृष्ट स्थिति तक जितनी कर्मों की स्थिति होती है, उस समय स्थिति के एक-एक स्थान को असंख्यात लोक प्रमाण कषायों के स्थान कारण हैं; वे कषायों के एक-एक स्थान अनन्तबार इस संसारी जीव के हुए हैं। इसलिये इस प्रकार के परिभ्रमणरूप संसार में जितने जीव हैं वे अनेक भेदरूप चारों गतियों में परिभ्रमण करते हुए निरन्तर दुःख भोगते हैं। कोई जीव निश्चल नहीं हैं, जल के बुलबुले के समान जीवन अस्थिर है, भोग-सम्पदा बादलों के समान विनाशीक है, राज्यधन-सम्पदा इन्द्रधनुष के समान क्षण भंगुर है। इस संसार में प्राणी अनन्तानन्त परिवर्तन करता है। इस प्रकार संसार का सत्यार्थ स्वरूप का चिंतवन करने से संसार में परिभ्रमण करने का भय लगने लगता है। - शरीर का स्वरूप : अब काय के स्वरूप का विचार करते हैं। यह मनुष्य शरीर रोगरूप सर्पों का बिल है, अनित्य है, दुःख का कारण है, अपवित्र है, निःसार है, करोड़ों उपाय करने पर भी Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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