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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार
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का घाव मिट गया, वह कोई मलहम पट्टी नहीं करता है; उसी प्रकार जिसे इंद्रिय जनित वेदना नहीं होती उसकी विषयों में प्रवृत्ति कभी नहीं होती। क्षुधा वेदना बिना भोजन कौन करता है ? तृषा वेदना बिना जल कौन पीता है ? गर्मी का कष्ट हुये बिना ठंडी हवा कौन चाहता है ? ठंड का कष्ट हुए बिना रुई के भरे वस्त्र तथा ऊनी वस्त्र कौन पहिनना-ओढ़ना चाहता है ?
ये सभी विषय तो वेदना मिटाने के उपाय हैं – इलाज हैं। इन विषयों से किंचित् काल के लिये वेदना घट जाती है, अज्ञानी उसे सुख मान लेता है, वह सुख वास्तव में सुख नहीं है। सुख तो वहाँ हैं जहाँ वेदना उत्पन्न ही नहीं होती है। अनाकुलता जिसका लक्षण है, ऐसा स्वाधीन अनन्त ज्ञान वह ही सुख है, अन्य नहीं। ऐसा निर्णय कर जानो। इस प्रकार हिंसादि को दुःखरूप ही जानने की भावना भाना योग्य है।
मैत्री आदि चार भावनायें : अब श्रावक को मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ-ये चार भावनायें भाने योग्य हैं, उन्हें कहते हैं।
एक इंद्रिय आदि सभी प्राणियों में मैत्री भावना चाहिये कि – किसी भी प्राणी को दुःख उत्पन्न नहीं हो, ऐसी अभिलाषा रखना वह मैत्री भावना है।१।
जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप इत्यादि में अधिकता लिये हों, उनमें प्रमोद भावना करना चाहिये। प्रमोद का अर्थ हर्ष, आनंद है। अतः गुणों में जो अधिकता लिये हों, उन्हें देखकर परिणामों में ऐसा हर्ष उत्पन्न हो जैसा हर्ष जन्म के दरिद्री को निधियाँ प्राप्त जो जाने पर होता है। गुणवन्तों को देखते ही हर्ष से रोमांच होना, मुख की प्रसन्नता से नेत्रों का प्रफुल्लित हो जाना, हृदय में आह्वाद से स्तुति के वचन, नाम-कीर्तन आदि द्वारा अंतरंग भक्ति का प्रकट करना वह प्रमोदभावना है ।२। ___असातावेदनीय कर्म के उदय से रोग-दारिद्रादि से पीड़ित जो दु:खी प्राणी है, तथा इंद्रियों से विकल अंधा, बहरा, लूला तथा अनाथ, विदेशी, अत्यन्त वृद्ध, बालक, विधवा इत्यादि दुखित प्राणियों का दुःख मेटने का उपाय करने का अभिप्राय वह कारुण्य भावना है ।। ___ जो धर्म रहित, तीव्र कषायी, हठग्राही, उपदेश देने के अयोग्य, विपरीत ज्ञानी, धर्मद्रोही, दुष्ट अभिप्रायी, निर्दयी हैं उनमें राग-द्वेष के अभावरूप रहना वह माध्यस्थ भावना है ।४।
सभी प्राणियों के दुःख का अभाव चाहना वह मैत्री भावना है। गुणों में जो अधिक हों उन पुरुषों को देखकर सुनकर हर्ष होना वह प्रमोद भावना है। दुःखित जीवों को देखकर उपकार करने की बुद्धि हो जाना वह कारुण्य भावना है। हठग्राही, निर्दयी, अभिमानी आदि में रागद्वेष रहित रहना वह माध्यस्थ भावना है। इस प्रकार धर्म के धारक श्रावकों को मैत्री आदि चार भावना भाने योग्य हैं।
जगत और काय का स्वरूप : गृहस्थों को जगत का स्वभाव व काय का स्वभाव भी चितवन करने योग्य है। जगत का स्वभाव चिंतवन करने से संसार परिभ्रमण से भय लगने लगता है, तथा शरीर का स्वभाव चिंतवन करने से शरीर से रागभाव का अभाव होता है।
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