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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार २२४] जैसे कोई पुरूष चारों ओर से अग्नि की ज्वाला से जलता हुआ अग्नि की तपन को नहीं सह सकने के कारण, पास में ही विष्टा से भरे महादुर्गन्ध युक्त बहुत गहरे गड्ढे में जाकर गिर पड़े और उस विष्टा में सिर तक डूबकर उसे ही ताप रहित सुख मानकर मर जाता है, वैसे ही यह संसारी जीव स्पर्शन इंद्रिय के विषय की चाहरूप दुःख को सहन करने में असमर्थ होने से स्त्रियों के दुर्गन्धयुक्त मलिन शरीर में डूबकर काम की पीड़ा रहित होकर सुख मानता हुआ अतितृष्णा से उत्पन्न तीव्र दुःख को भोगता हुआ मरणकर संसार में दुःखी होता रहता है। इंद्रियाँ दुःख में निमित्त है : इस जीव को ये इंद्रियाँ तो आताप का दुःख उत्पन्न करनेवाली महाव्याधि हैं। तथा ये जो इंद्रियों के विषय हैं वे किंचित् काल के लिये दाह दुःख की उपशमता के कारण, विपरीत अपथ्य औषधि हैं, जिनसे विषयों की चाहरूप दाहदुःख बढ़ता चला जाता है, घटता नहीं है, भ्रम से इलाज मानता है। जिनकी इंद्रियाँ जीवित हैं, उन्हें स्वाभाविक ही दुःख है, दुःख नहीं होता तो विषयों में उछल-उछल कर कैसे गिरते ? वही देखते भी हैं - कपट की हथिनी के शरीर के स्पर्श के लोभ के लिये जंगल का हाथी स्पर्शन इंद्रिय के दुःख का सताया होने से गड्ढे में गिरकर घोर बंधन के दुःख भोगता है। पानी की चंचल मछली रसना इंद्रिय के दुःख के वश में होकर धीवर के द्वारा फैलाये कांटे में फंसकर प्राण गंवा बैठती है। घ्राण इंद्रिय के दुःख का सताया भंवरा कमल की गंध के लोभ में कमल को सिकुड़ता हुआ देखकर भी कमल में ही रहकर प्राण रहित हो जाता है। नेत्र इंद्रिय जनित कष्ट को नहीं सह सकनेवाला पतंगा रूप का लोभी होकर दीपक की ज्वाला में जलकर भस्म हो जाता है। कर्ण इंद्रिय जनित संगीत सुनने की तृष्णा के दुःख को नहीं सहन कर सकने में समर्थ हिरण शिकारी द्वारा गाये जाने वाले मधुर राग में अचेत होकर मार दिया जाता है। ऐसी दुर्निवार इंद्रियों की वेदना के वश में पड़े हुए जीव, जिनमें उनका मरण निकट ही है ऐसे विषयों में प्रयत्न पूर्वक लगते हैं। इंद्रियजनित आतप के समान तीनों लोकों में अन्य आताप नहीं है। जैसा आतप इंद्रियों के विषयों की चाह का है, वैसा आतप अग्नि में नहीं है, शस्त्र के आघात में नहीं है, विष में नहीं है। इंद्रियों का आतप सहन करने में असमर्थ होकर विषयों की प्राप्ति के लिये जीव अग्नि में जल जाते हैं, शस्त्रों के आगे होकर मरते हैं, विष भक्षण कर लेते हैं, धर्म का लोप कर देते हैं, माता-पिता, गुरु-शिक्षक को विषयों का रोकनेवाला जानकर मार डालते हैं। __ इस संसार में इंद्रियों से केवल दुःख ही है। जिनके पास इंद्रियरहित अतीन्द्रिय केवलज्ञान है उनके पास ही निराकुलता स्वरूप ज्ञानानंद सुख है। जो इंद्रियों के आधीन है उनके स्वाभाविक दुःख ही है। यदि स्वाभाविक दुःख नहीं हो तो विषयों में प्रवृत्ति कैसे करते हैं ? जिसका शीत ज्वर मिट गया, वह अग्नि को तापना नहीं चाहता है; जिसका दाह ज्वर मिट गया, वह बर्फ की पट्टी नहीं रखना चाहता है; जिसका नेत्ररोग मिट गया, वह कोई भी अंजन आंखों में नहीं लगाना चाहता है; जिसका कान का दर्द मिट गया, वह बकरे का मूत्रादि कान में डालना नहीं चाहता है। जिसका शरीर का फोंड़े Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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