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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [२२३ संसार में जितने भी बन्धन, पराधीनता, कषाय व दुःख हैं, वे सभी परिग्रह के कारण हैं। परिग्रह का त्याग कर देना सिर पर से बड़े भार को उतार देने जैसा है। परिग्रह का त्यागी निर्बन्ध है। परिग्रह त्याग का फल स्वर्ग और मोक्ष है। परिग्रह का त्याग ही समस्त कल्याण का मूल है। इस प्रकार हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह में जो दोष हैं उनकी भावना भाकर उन पापों का त्याग कर देना ही श्रेष्ठ है। पाँच पापों के त्याग की भावना : ये पाँच पाप दुःख ही हैं। ऐसा विचार करना किहिंसादि दु:ख के कारण हैं, इसलिये वे हिंसादि पाँच पाप दुःख ही हैं। हिंसादि दुःख के कारण में कार्य का उपचार करके पाँच पापों को दुःख ही कह दिया है। जैसे वध, बन्धन, पीड़न मुझे अप्रिय हैं, वैसे ही समस्त अन्य प्राणियों को भी अप्रिय हैं। जैसे झूठ, कटुक, कठोर वचन मुझे कोई कहे तो उन्हें सुनने से मुझे बहुत अधिक दुःख उत्पन्न हो जाता है, उसी प्रकार दूसरे जीवों को भी कटुक वचन-असत्य वचन दुःख उत्पन्न कर देते हैं। जैसे मेरे इष्टद्रव्य को कोई चोर चुराकर ले जाय तो मुझे बहुत दुःख होता है, उसी प्रकार दूसरे जीवों को भी धन चोरी चले जाने से दुःख होता है। जैसे हमारी स्त्री का कोई तिरस्कार करे तो उससे हमें बहुत मानसिक पीड़ा होती है, उसी प्रकार अन्य जीवों को भी अपनी माता, बहिन, पुत्री, स्त्री के व्यभिचार को सुनकर-देखकर बहुत दुःख होता है। जैसे धन, धान्यादि, वस्त्रादि नहीं मिलने से तथा प्राप्त हुए के नष्ट हो जाने से वांछा, रक्षा, शोक, भय होने से अपने को दुःख होता है, उसी प्रकार परिग्रह की वांछा से तथा प्राप्त परिग्रह के नष्ट हो जाने से सभी जीवों को दुःख होता है। इसलिये हिंसादि पापों से विरक्त हो जाने में ही जीव का कल्याण है। इन्द्रिय सुख दुःखरूप है : यहाँ कोई कहता है – कोमल अंगो की धारक स्त्रियों के अंग के स्पर्श से रतिसुख उत्पन्न होता दिखता है, दुःखरूप कैसे कहा ? उत्तर : इन्द्रियों के विषयों के भोग से उत्पन्न सुख, सुख नहीं है, भ्रम से सुखरूप दिखता है। पहले तो विषयों की चाहरूप महा वेदना उत्पन्न होती है। जब वेदना उत्पन्न होती है तब उसे दूर करने का इलाज चाहता है। जैसे शरीर में चमड़ी, मांस, खून जब विकार रूप हो जाते हैं, तब उत्कट खाज हो जाती है, फिर नाखून से, ठीकरी से, पत्थर से अपने शरीर को खुजाता है। शरीर को रगड़ने से खून निकलने लगता है, तब और अधिक खुजाकर दुःखी ही होता है, वहाँ दुःख को ही सुख मानता है। उसी प्रकार मैथुनसेवन करनेवाला भी मोह से दुःख ही को सुख मानता है। मनुष्य, तिर्यंच, असुर, सुरेन्द्र आदि सभी जीव अपने शरीर के साथ ही उत्पन्न हुई इंद्रियों द्वारा उत्पन्न विषयों की चाह रूप जलन का दुःख सहने में असमर्थ होने से महानिंद्य विषयों में अतिलालसा करके झपट कर भोगना चाहते हैं। अग्नि से तपाये हुए लोहे के गोले के समान इंद्रियों के ताप से तपतायमान आत्मा विषयों में अति तृष्णा से उत्पन्न अतिदुःखरूप वेग को सहन करने में असमर्थ होने से, विषयों में दौड़कर छलांग लगाता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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