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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २२२] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार महा संक्लेश भावों से अल्प आयु भोगकर दुर्गति में चला जायेगा। इसलिये चोरी का दूर से ही त्याग करना श्रेष्ठ है। जिनकी पराये धन में इच्छा नहीं है, अपने पुण्य-पाप के अनुकूल मिले धन में संतोष धारण करके, अन्याय के धन में कभी चित्त नहीं चलाते हैं उनका इस लोक में भी यश होता है, प्रतीति होती है, सभी में आदर होता है। जिसके परिणाम पराये धन में नहीं जाते, अपने कमाये हुये धन में ही मंदरागरूप रहते हैं, उन्हें एक भी कष्ट नहीं आता है, अशुभ कर्म का बंध नहीं होता है, सभी लोग अपना धन जमा करना चाहते हैं। परलोक में देवलोक की अपरिमित विभूति असंख्यात काल तक भोगकर, मनुष्यों में राजाधिराज , मंडलेश्वर, चक्रवर्ती का वैभव भोगकर क्रम से निर्वाण प्राप्त करता है। इसलिये भगवान वीतराग का धर्म धारण करके अन्याय के धन का त्याग करके रहना ही श्रेष्ठ है। __ कुशील त्याग की प्रेरणा : अब कुशील के दोषों की भावना भाकर कुशील से विरक्त हो जाना ही योग्य है। कुशीली पुरुष काम के मद से उन्मत्त होकर मदोन्मत्त हाथी के समान घूमता है। वह स्त्रियों के राग से ठगा हुआ दोनों लोकों का विचार नहीं करता हुआ कार्य-अकार्य को नहीं जानता है, भक्ष्य-अभक्ष्य, योग्य-अयोग्य का विचार नहीं रहता है, पाप-पुण्य को नहीं समझता है, नहीं देखता है। प्रत्यक्ष सिर पर विपत्ति-अपयश होता दिखाई देता है, तो भी काम की अंधेरी से उसे नहीं दिखता है। काम सरीखी दूसरी अंधेरी तीनलोक में नहीं है। ___काम से पीड़ित मनुष्य पर्याय में भी पशु समान ही है, पशु में और कामान्ध में भेद नहीं है। काम से अंधे हुए तिर्यंच वनादि में कट-कटकर मर जाते हैं; मनुष्य जन्म में भी मर जाते र अन्य को मार डालते हैं। कामान्ध के धर्म-अधर्म का विचार नहीं रहता है, लोक लाज मूल से ही नष्ट हो जाती है। परस्त्री लंपटी को अनेक ओछे आदमी भी मार देते हैं; राजादि द्वारा लिंग छेदन, सर्वस्व हरणादि दण्ड को प्राप्त होता है, मरकर नरकादि दुर्गति में परिभ्रमण करके तिर्यंच-मनुष्यों में घोर दुःख भोगता हुआ नीच, चांडाल, चमार, धीवर, महादरिद्री, महाकुरूप, कोढ़ी, अंगहीन, अंधा , लूला, पांगला, कुबड़ा इत्यादि नीच मनुष्यों में उत्पन्न होकर, फिर नरक , फिर तिर्यंच, फिर कुमानुष, नंपुसक आदि भवों में दुःख भोगता है। इसलिये कुशील का त्याग करना ही श्रेष्ठ है। शीलवंत पुरुष स्वर्गलोक में करोड़ो अप्सराओं को भोग कर, असंख्यातकाल तक भोग भोगता हुआ मनुष्यों में प्रधान होकर अनुक्रम से मोक्ष का पात्र हो जाता है। परिग्रह त्याग की प्रेरणा : अब परिग्रह की ममता का दोष विचारकर परिग्रह से विरागी होना श्रेष्ठ है। परिग्रह की ममता सभी पाँच पापों में प्रवृत्ति कराती है। जैसे ईंधन से अग्नि बढ़ती ही है, उसी प्रकार तृष्णारूप अग्नि से निरन्तर परिग्रह की ममता बढ़ती है, तृप्ति नहीं होती है। परिग्रह के उपार्जन में, रक्षण में, नाश में बहुत दुःख होता है। परिग्रह की ममतावाला धर्म-अधर्म, जीवन-मरण का विचार रहित होता है। परिग्रह की ममता हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील , अभक्ष्य, बहुत आरंभ, कलह बैर, ईर्ष्या , भय, शोक, संताप आदि हजारों दोषों में प्रवृत्ति करा देती है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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