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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २३०] श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार जिनशासन को पुष्ट करनेवाला , संशय आदि अंधकार को दूर करने में सूर्य के समान जो भगवान का अनेकान्तरूप आगम है उसके पठन, श्रवण, प्रवर्तन, चिंतवन में भक्ति पूर्वक प्रवर्तन करना वह प्रवचन भक्ति भावना है ।१३। अवश्य करने योग्य जो षट् आवश्यक हैं, वे अशुभ कर्मों के आस्रव को रोककर महान निर्जरा करनेवाले हैं, अशरण को शरण हैं ऐसे आवश्यकों को एकाग्रचित से धारणकर निरंतर उनकी भावना भाना चाहिये।१४। जिनमार्ग की प्रभावना में नित्य प्रवर्तन करना चाहिये। जिनमार्ग की प्रभावना धन्यपुरुषों द्वारा होती है। अनेक लोगों की वीतराग धर्म में प्रवृत्ति व कुमार्ग का अभाव प्रभावना द्वारा ही होता है।१५। धर्म में, धर्मात्मा पुरुषों में, धर्म के आयतनों में, परमागम के अनेकांतरूप वाक्यों में परम प्रीति करना वात्सल्य भावना है। यह वात्सल्य भावना सभी भावनाओं में प्रधान है, वात्सल्य अंग सभी अंगों में प्रधान है, महामोह तथा मान का नाश करने वाला है।१६ । __ इस प्रकार निर्वाण सुख को देनेवाली इन सोलह कारण भावनाओं को जो भव्य स्थिर चित्त से भाता है, चिंतन करता है, बहुत सन्मान करता है, उनमें रच-पच जाता है, वह सभी जीवों के हितरूप तीर्थंकरपना पाकर पंचमगति जो निर्वाण उसे प्राप्त करता है। इस प्रकार षोडशकारण की यह समुच्चय कथनरूप भावना समाप्त हुई। दर्शन विशुद्धि भावना अब दर्शन विशुद्धि नाम की प्रथम भावना का वर्णन करते हैं। हे भव्य जीवों! यदि इस मनुष्य जन्म को पाकर सफल करना चाहते हो तो सम्यग्दर्शन की विशुद्धता धारण करो। यह सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है। सम्यग्दर्शन के बिना श्रावक धर्म भी नहीं होता है, मुनि धर्म भी नहीं होता है। सम्यग्दर्शन के बिना जो ज्ञान है, वह कुज्ञान है, जो चारित्र है, वह कुचारित्र है, जो तप है वह कुतप है। सम्यग्दर्शन के बिना इस जीव ने संसार में अनंतानंत काल परिभ्रमण किया है, अब यदि चतुर्गतिरूप संसार परिभ्रमण से भयभीत होकर जन्म-जरा-मरण के दुःखों से - रोगों से छूटना चाहते हो तथा अनन्त अविनाशी सुखमय आत्मा को चाहते हो तो अन्य समस्त परद्रव्यों की अभिलाषा छोड़कर एक सम्यग्दर्शन की ही उज्ज्वलता करो। कैसी है दर्शन विशुद्धता ? निर्वाण के सुख की कारण है, दुर्गति का निराकरण करने वाली है, विनयसंपन्नता आदि पन्द्रह कारण भावनाओं की भी मूल कारण है। यदि दर्शन विशुद्धता नहीं है तो अन्य पन्द्रह भावनायें भी नहीं होती है। यह संसार के दुःखरूप मोहांधकार का नाश करने के लिये सूर्य के समान है, भव्यों को परमशरण है, ऐसी दर्शन विशुद्धता नाम की भावना भाना चाहिये। जिस प्रकार से स्व-पर द्रव्यों का भेदज्ञान उत्पन्न हो, उज्ज्वल हो वैसा प्रयत्न करना चाहिये। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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