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________________ २१८] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार इस प्रकार अहिंसा अणुव्रत की पाँच भावनायें निरंतर भाना चाहिये, भूलना नहीं चाहिये। ___ सत्य अणुव्रत की पाँच भावना : अब सत्य अणुव्रत की पाँच भावना कहते हैं – क्रोध त्याग, लोभ त्याग, भीरुत्व त्याग, हास्य त्याग, अनुवीचि भाषण त्याग। जो गृहस्थ सत्य अणुव्रत धारण करता है वह क्रोध करने का त्याग करता है, इस प्रकार विचार करना चाहिये - यदि क्रोधी होकर वचन बोलता है तो उसके सत्य कहना नहीं बन सकता है, अतः क्रोध त्यागने पर ही सत्य रहता है। गृहस्थ को कर्म के उदय से कोई बाह्य विपरीत निमित्त मिल जाने से क्रोध पैदा हो जाता है तो उस समय इस प्रकार विचार करना चाहिये – मेरे परिणामों में क्रोधजनित तेजी पैदा हो गई है, इसलिये अब मुझे मौन ही रहना, वचन नहीं बोलना चाहिये। यदि वचन को रोकूँगा तो कषाय विसंवाद नहीं बढ़ेगा, मेरा क्षमादि गुण भी नहीं बिगड़ेगा। अतः जब तक मेरे हृदय में क्रोध जनित अग्नि का उपशम नहीं होता है तब तक वचनों की प्रवृत्ति नहीं करनी, ऐसा दृढ़ विचार करना , वह क्रोध त्याग ( मौनग्रहण ) भावना है ।। लोभ के कारण सत्य वचन नहीं कह पाता है। इसलिये अन्याय का लोभ छोड़ना, वह लोभ त्याग भावना है ।२। जो भय के वश होता है, वह सत्यवचन नहीं कह सकता है। भय का त्याग करने पर ही सत्यवचन कहा जा सकता है, अतः भय का त्याग करना, वह भीरुत्व त्याग भावना है ।। हँसी में सत्यवचन नहीं कहा जा सकता है। इसलिये अणुव्रती हंसी करने का दूर से ही त्याग कर देता है, वह हास्य त्याग भावना है ।४। जिनसूत्र से विरुद्ध वचन नहीं कहना चाहिये। जिनसूत्र के अनुकूल वचन बोलना, वह अनुवीचिभाषण त्याग भावना है ।५। जो अपने सत्य अणव्रत का पालन करना चाहता है वह क्रोध के कारणों को रोकता है। जिसके लिये अनेक असत्य बोलना पड़ते हैं ऐसे लोभ को छोड़ देता है। जिससे लोक विरुद्ध , धर्म विरूद्ध वचनों में प्रवृत्ति हो जाती है ऐसा धन बिगड़ जाने का भय, शरीर बिगड़ जाने का भय नहीं करता है। जो अपने सत्यव्रत की रक्षा करना चाहता है वह अन्य का हास्य कभी नहीं करता तथा जिनसूत्र से विरुद्ध वचन कभी नहीं कहता। ___अचौर्य अणुव्रत की पाँच भावना : अब अचौर्य अणुव्रत की पाँच भावना कहते हैं - शून्यागार, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्य शुद्धि, सधर्माविसंवाद - ये पाँच अचौर्यव्रत की भावनायें हैं, अचौर्य अणुव्रत का धारक गृहस्थ इस पाँच भावनाओं को निरन्तर भाता है। __व्यसनी, दुष्ट, तीव्रकषायी तथा कलह करनेवाले मनुष्यों से रहित जो मकान हो वहाँ रहने का भाव रखना चाहिये। तीव्रकषायी दुष्टों के निकट रहने से परिणामों की शुद्धता नष्ट हो जाती है, दुर्ध्यान प्रकट हो जाता है। अतः पापियों से शून्य मकान में रहना ही शून्यागार भावना है। १। जिस मकान Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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