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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२१९ में किसी दूसरे का झगड़ा नहीं हो, वहाँ निराकुल रहना, वह विमोचितावास भावना है ।२। किसी के मकान में जबरदस्ती से धंस कर नहीं बैठ जाना, वह परोपरोधाकरण भावना है ।३। अन्याय-अभक्ष्य को छोड़कर भोगान्तराय के क्षयोपशम के अनुसार जो रस-नीरस भोजन मिले उसी में समता रखकर लालसा रहित होकर भोजन करना, वह भैक्ष्यशुद्धि भावना है ।४। साधर्मी पुरूष से विसंवाद नहीं करना, वह सधर्माविसंवाद भावना है ।५। इस प्रकार अचौर्य अणुव्रत के धारियों को ये पाँच भावना भाने योग्य हैं। ब्रह्मचर्य अणुव्रत की पांच भावना : ब्रह्मचर्य अणुव्रत की पाँच भावना कहते हैं :- स्त्रीराग कथा श्रवण त्याग, स्त्रियों के मनोहर अंग देखने का त्याग, पूर्वकाल में भोगे भोगों के स्मरण करने का त्याग, पुष्ट रस का भोजन व इंद्रियों में दर्प उपजाने वाले भोजन का त्याग, तथा अपने शरीर के संवारने – संस्कार करने का त्याग, ये पाँच ब्रह्मचर्यव्रत की भावनायें हैं। दूसरों की स्त्रियों की राग उत्पन्न करनेवाली कथा-वार्ता के श्रवण का त्याग करने की भावना करना चाहिये १; दूसरों की स्त्रियों के मनोहर अंग, स्तन, जंघा, मुख, नेत्रादि व सौंदर्य को रागभाव से देखने का त्याग करना चाहिये २; अणुव्रत ग्रहण करने के पहले की अवस्था में भोगे हुए भोगों को याद नहीं करना चाहिये ३; हृष्ट-पुष्ट-कामोद्दीपक भोजन का त्याग करना चाहिये ४; अपने शरीर को अंजन, मजुन, इत्र, तेल, फुलेलादि काम विकार उत्पन्न करनेवाले वस्त्र आभरण आदि का त्याग करने की भावना करना , वह स्वशरीर संस्कार त्याग भावना है। ५। इस प्रकार ब्रह्मचर्य अणुव्रत के धारी गृहस्थ को ये पाँच भावनायें भाना योग्य हैं। परिग्रह-परिमाण अणुव्रत की पाँच भावना : अब परिग्रह परिमाण अणुव्रत की पाँच भावना कहते हैं - परिग्रह परिमाण अणुव्रत धारण करनेवाला गृहस्थ बहुत पापबंध के कारण अन्यायरूप अभक्ष्य पदार्थों का तो यावज्जीवन त्याग करता है १; अन्तराय कर्म के क्षयोपशम प्रमाण प्राप्त पाँच इंद्रियों के विषयों में संतोष धारण करके मनोज्ञ विषयों में अतिराग नहीं करना २; उक्त मनोज्ञ विषयों में अति आसक्त नहीं होना ३; अमनोज्ञ असुहावने प्राप्त विषयों में द्वेष नहीं करना ४; अन्य जीवों के सुन्दर विषयभोग देखकर उनके भोगने-चाहने की लालसा नहीं करना ५। ये परिग्रह परिमाण व्रत की पाँच भावनायें है। पाँच पाप महानिंद्यरूप हैं। उनके त्याग की भावना भी भाना योग्य है। हिंसा त्याग की प्रेरणा : ये हिंसादि पाँच पाप हैं, उनसे महादुःख होने से इस लोक में अपना बिगाड़ है, तथा परलोक में अनेक भवों में घोर दुःख भोगना पड़ते हैं, ऐसा जानकर पापों से भयभीत होकर उन्हें दूर से ही त्याग देना चाहिये। हिंसा करनेवाला निरंतर भयवान बना रहता है। जिसे वह मारता है उससे अनेक भवों तक वैर का संस्कार चला जाता है। जिसे मारता है उसके स्त्री, पुत्र, पौत्र, मित्र, कुटुम्बी वैरी हो जाते Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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