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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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परिशिष्ट -५
श्रावक धर्म जिस प्रकार पित्तज्वर से पीड़ित मनुष्य को शक्कर संयुक्त मीठा दूध कडुवा लगता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि को भी वस्तु स्वरूप विपरीत ही प्रतिभासित होता है।
मिथ्यादृष्टि जीव बहुत प्रकार से चार प्रकार का दान भी दे, अत्यन्त भक्ति से जिनपूजा भी करे, शील को भी धारण करे, उपवास भी करे, दस प्रकार के पवित्र धर्म को धारण करे, निर्दोष भिक्षा भोजन भी करे, ध्यान भी करे, विशेषरूप से शास्त्रों का परिज्ञान भी प्राप्त करले, भाव से अनेक प्रकार के तपों का भी आचरण क्यों न करे, तो भी वह तत्त्वश्रद्धान रहित होने से मुक्तिरूप सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता है।
तत्त्वज्ञ जनों को विचार करना चाहिये कि परिग्रह से रहित, निर्मल, पवित्र एवं यथार्थ जिनेन्द्रकथित धर्म ही मोक्षमार्ग है, अन्य सब संसार परिभ्रमण के ही कारण हैं।
जो निर्मल बुद्धि मनुष्य संसार की असारता से भयभीत होकर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से विभूषित होकर जिनेन्द्रदेव के द्वारा प्ररूपित निर्दोष श्रावक के व्रतों को धारण करते हैं, जिनभक्ति से प्रेरित होकर जिनभवन का निर्माण कराते हैं, जिन प्रतिमा स्थापित कराते हैं, जिन पूजन करते हैं, वे उत्तम मोक्षपद को प्राप्त होते हैं।
-सुभाषित रत्न संदोह : आचार्य अमितगति सम्यग्दृष्टि की भावना तो मुनिपने की ही होती है। अहो! कब चैतन्य में लीन होकर सर्वसंग का परित्यागी कर मुनिमार्ग में विचरण करूँ? शुद्ध रत्नत्रय स्वरूप जो उत्कृष्ट मोक्षमार्ग उसरूप कब परिणमित होऊँ?
तीर्थंकर और अरिहंत मुनि होकर चैतन्यके जिस मार्ग पर विचरे उस मार्ग पर विचरण करूँ, ऐसा धन्य स्वकाल कब आवेगा? इस प्रकार आत्मा के भाव पूर्वक धर्मी जीव भावना भाते हैं। ऐसी भावना होते हुए भी निजशक्ति की मंदता से और निमित्तरूप से चारित्रमोह की तीव्रता से तथा कुटुम्बीजनों आदि के आग्रहवश होकर स्वयं ऐसा मुनिपद ग्रहण नहीं कर सके तो उस धर्मात्मा को गृहस्थपने में रहकर श्रावक के धर्म का, गृहस्थ के योग्य देवपूजा आदि षट्कर्मों तथा व्रतों का पालन करना चाहिये। - श्रावक धर्म प्रकाश :श्री कानजी स्वामी
सम्यग्दर्शन तीनों कालों को विषय करनेवाले, तीन लोकरूप गृह को प्रकाशित करने में उत्कष्ट दीपकरूप सम्यग्ज्ञान का कारण हैं, तथा कर्मरूप ईंधन को अग्नि के समान भस्म करनेवाले सम्यक्चारित्र का उत्पादक हैं।
__ गृह में निवास करनेवाले श्रावक को अपने शक्ति को न छिपाते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप जो एक मोक्षमार्ग है उसका पूर्वरूप से ही आश्रय करना चाहिये।
जिस प्रकार वृक्ष का आधार उसकी मूल (जड़) है, भवन का आधार उसकी नींव है और अंकुरों का आधार बीज हैं, उसी प्रकार रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग का आधार-मूल कारण सम्यक्त्व है।
-धर्मारत्नाकर : श्री जयसेन मुनिराज विद्वान् मनुष्यों को नियमानुसार सदा भोग और उपभोगरूप वस्तुओं का प्रमाण कर लेना चाहिये। उनका थोड़ा सा भी समय व्रतों से रहित नहीं जाना चाहिये। दान से रहित गृहस्थाश्रम को पत्थर की नाव के समान समझना चाहिए। शास्त्र से रहित घर को स्मशान के समान समझना चाहिए - पंचविंशतिका : आचार्य पद्मनंदि
शास्त्रों में कहीं निश्चयपोषक उपदेश हैं, कहीं व्यवहारपोषक उपदेश है। यदि अपने को व्यवहार का आधिक्य हो तो निश्चयपोषक उपदेश ग्रहण करके यथावत् प्रवतै, और यदि अपने को निश्चय का आधिक्य हो तो व्यवहारपोषक उपदेश ग्रहण करके यथावत् प्रवतें।
- मो. मा. प्र. : पंडित टोडरमल जी
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