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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२१५ व्रतों के द्वारा देव-पद प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु अव्रतों के द्वारा नरक-पद प्राप्त करना अच्छा नहीं है। जैसे छाया और धूप में बैठनेवालों में अन्तर पाया जाता है, वैसे ही व्रत और अव्रत के आचरण करनेवालों में अन्तर पाया जाता है। - इष्टोपदेश : आचार्य पूज्यपाद जिनेन्द्र वन्दना चौबीसों परिग्रह रहित, चौबीसों जिन राज। वीतराग सर्वज्ञ जिन हितकर सर्व समाज ।। श्री आदिनाम अनादि मिथ्या मोह का मर्दन किया। आनन्दमय ध्रुवधाम जिन भगवान का दर्शन किया।। निज आत्मा को जानकर निज आतमा अपना लिया। निज आतमा में लीन हो निज अतामा को पा लिया।। मानता आनन्द सब जग हास में परिहास में। पर आपने निर्मद किया परिहास को परिहास में।। परिहास भी हैं परिग्रह जग को बताया आपने। हे पद्मप्रभ परमात्मा पावन किया जग आपने।। रति अरतिहर श्री चन्द्रजिन तुम ही अपूरव चन्द्र हो। निःशेष हो निर्दोष हो निर्विघ्न हो निष्कंप हो ।। निकलंक हो अकलंक हो निष्ताप हो निष्पाप हो। यदि है अमावस अज्ञजन तो पूर्णमासी आप हो।। निज आतमा के भान बिन सुख मानकर रति-राग में। सारा जगत नित जल रहा है वासना की आग में ।। तुम वेद-विरहित वेदविद् जिन वासना से दूर हो। वसुपूज्यसुत वस आप ही आनन्द से भरपूर हो ।। मोहक महल मणिमाल मंडित सम्पदा षड् खण्ड की। हे शान्ति जिन तृण-सम तजी ली शरण एक अखण्ड की।। पायो अखण्डानन्द दर्शन ज्ञान वीरज आपने। संसार पार उतारनी दी देशना प्रभु आपने ।। मनहर मदन तन वरन सुवरन सुमन सुमन समान ही। धनधान्य पूरित सम्पदा अगणित कुबेर समान थी थी उरवसी सी अंगनाएँ संगनी संसार की। श्री कुन्थुजिन तृण-सम तजी ली राह भवदधि पार की।। तुम हो अचेलक पार्श्वप्रभु वस्त्रादि सब परित्याग कर। तुम वीतरागी हो गये रागादिभाव निवार कर ।। तुमने बताया जगत को प्रत्येक कण स्वाधीन है। कर्ता न धर्ता कोई है अणु अणु स्वयं में लीन है ।। हे पाणिपात्री वीर जिन जग को बताया आपने। जगजाल में अबतक फंसाया पुण्य एवं पाप ने ।। पूण्य एवं पाप से है पार मग सुख-शान्ति का। यह धरम का है मरम यह विस्फोट आतम क्रान्ति का ।। पुण्य-पाप से पार निज आतम को धरम है। महिमा अपरंपार परम अहिंसा है यही ।। जो मोह माया मान मत्सर, मदन मर्दन वीर हैं। जो विपुल विघ्नों बीच में भी ध्यान धारण धीर हैं।। जो तरण-तारण, भव-निवारण, भव जलाधि के तीर हैं। वे वंदनीय जिनेश तीर्थंकर स्वयं महावीर हैं ।। आत्मा अलिंगग्रहण है १. आत्मा इंद्रियों के द्वारा ग्रहण नहीं होता, अतः वह अलिंगग्रहण है। २. आत्मा इंद्रियों के द्वारा नहीं जानता हैं, अतः अलिंगग्रहण है। ३. आत्मा इंद्रिय-प्रत्यक्ष पूर्व अनुमान का विषय नहीं हैं, अतः अलिंगग्रहण है। ४. आत्मा मात्र अनुमान से ही ज्ञात होने योग्य नहीं हैं. अतः अलिंगग्रहण है। ५. आत्मा केवल अनुमान करनेवाला ही नहीं हैं, अतः अलिंगग्रहण है। ६. आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है, अतः अलिंगग्रहण है। ७. आत्मा को ज्ञेय पदार्थों का अवलम्बन नहीं हैं, अत: अलिंगग्रहण है। ८. आत्मा का ज्ञान कहीं बाहर से नहीं लाया जा सकता हैं, अतः अलिंगग्रहण है। ९. आत्मा का ज्ञान हरण नहीं किया जा सकता हैं, अत: अलिंगग्रहण है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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