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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [२१३ व्रत शीलादि गुणों की प्राप्ति होती है, नरक - तिर्यंच आदि गतियों में परिभ्रमण का अभाव होता है। जिनमंदिर समान उपकार करनेवाला जगत में कोई दूसरा नहीं है। जिनमंदिर के निमित्त से शास्त्र श्रवण-पठन द्वारा अनेक श्रोताओं का उपकार होता है, वक्ता का उपकार होता है। जिनमंदिर के निमित्त से कितने ही लोग कार्योत्सर्ग करते हैं, कोई जाप करता है, कोई रात्रि में जागरण करता हैं, कोई अनेक प्रकार की पूजन करके प्रभावना करते हैं। कितने ही स्तवन करते हैं । कोई तत्त्वार्थों की चर्चा करते हैं, कोई प्रोषधोपवास तथा वेला-तेला पंच उपवासादि करके बड़ी निर्जरा करते हैं। कोई भजन, कोई नृत्य, कोई गान करके पुण्य उपार्जन करते हैं। कोई स्वाध्याय करते हैं, कोई धर्मध्यान करते हैं, कोई वीतराग भावना करते हैं, कोई अनेक प्रकार के उपकरणों द्वारा प्रभावना करते हैं । जिनमंदिर के निमित्त से पाप-पुण्य, देव - कुदेव, धर्म-अधर्म, गुरु-कुगुरु का जानना होता है, भक्ष्य–अभक्ष्य, कार्य-अकार्य, हेय-उपादेय का ज्ञान भी जिनमंदिर में जाने से ही होता है। त्याग, व्रत, शील, संयम, भावना का स्वरूप जानना, उत्तम आचरण करना आदि समस्त कार्य जिनमंदिर के प्रभाव से होते हैं। जिनमंदिर बराबर कोई उपकारी नहीं है। जिनमंदिर अशरण को शरण है। ऐसा परोपकार करनेवाला जिनमंदिर को जानकर इसकी वैयावृत्य करना चाहिये। इस प्रकार वैयावृत्य में जिनपूजा, जिनमंदिर की वैयावृत्य करना कहा है। अब वैयावृत्य के पाँच अतिचार कहनेवाला श्लोक कहते हैं : हरितपिधान निधाने ह्यनादरास्मरणमत्सरत्वानि । वैयावृत्यस्यैते व्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ।।१२९ ।। अर्थ :- वैयावृत्य अर्थात् दान के पाँच अतिचार त्यागने योग्य हैं हरितपिधान, हरितनिधान, अनादर, अस्मरण, मत्सरत्व । जो व्रतियों को देने योग्य आहार, पानी, औषधि आदि है उसे हरित पत्ते, पत्तल, पान, कमलपत्र इत्यादि सचित्त से ढका हुआ देना, वह हरितपिधान नाम का अतिचार है १ । हरित जो वनस्पति के पत्ते आदि के ऊपर रखा हुआ भोजन आदि देना, वह हरितनिधान नाम का अतिचार है ।२। दान को अनादर से, अविनय से, प्रियवचन आदि रहित देना, वह अनादर नाम का अतिचार हैं ।३ । पात्र को भोजनादि देने के लिये निश्चितकर अन्यकार्य में लगकर भूल जाना, देने योग्य द्रव्य को तथा विधि को भूल जाना, वह अस्मरण नाम का अतिचार है ।४। अन्य दातार से ईर्ष्या कर दान देना, वह मत्सर नाम का अतिचार है ।५। - इस प्रकार दान जो वैयावृत्य है उसके पाँच अतिचार टाल करके, अत्यन्त विनयपूर्वक, शुद्ध दान करना चाहिए । पंचम - शिक्षाव्रत अधिकार समाप्त Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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