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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
एक दिन भगवान वीरजिनेन्द्र का समोशरण वैभार पर्वत पर आया जानकर, राजा श्रेणिक ने वन्दना को जाने के लिये नगर में आनंद की भेरी बजबाई। तब नगर के भव्य जीव भगवान की वन्दना को जाने के लिये अनेक प्रकार के उज्ज्वल वस्त्र-आभरण पहिनकर, पूजन की सामग्री को हाथों में लेकर, जय-जय शब्दोच्चर करते हुए हर्ष से नृत्य, गान, वादित्र के शब्द करते हुये चले। सम्पूर्ण नगर में आनंद-हर्ष व्याप्त हो गया। लोगों के पूजनजनित आनंद के शब्दों को सुनकर उस मेंढ़क को भी पूजन करने का बहुत उत्साह हुआ। तब वह मेंढ़क भी एक फूल को अपने मुख में लेकर आनंद सहित उछलता हुआ वीरजिनेन्द्र की पूजा के लिये चल पड़ा।
अतिभक्ति से ऐसा विचार नहीं किया कि–कहाँ तो विपुलाचल पर्वत के ऊपर बीस हजार सीढ़ियों सहित समोशरण और कहाँ मैं असमर्थ मेंढक, वहाँ कैसे पहुँचूगा? अति भक्ति से ऐसा विचार नहीं हुआ। मैं तो अब जिनेन्द्र की पूजा करूँगा - ऐसा उत्साह सहित मार्ग में गमन करता हुआ राजा के हाथी के पैर के नीचे दब कर मर गया, और सौधर्म स्वर्ग में महानऋद्धि का धारक देव हुआ। वहाँ पर अवधिज्ञान से जाना कि मैंने पूजन के भाव करने से यह देवपना प्राप्त किया है। तत्काल ही मेंढ़क का चिन्ह धारण करके वीरजिनेन्द्र के समोशरण में पूजन के लिये जाकर, समस्त जीवों को पूजन करने के भाव का फल प्रकट दिखा दिया। एक तिर्यंच मेंढ़क जो पूजा के स्थान तक पहुँच ही नहीं पाया, केवल पूजन के भाव करके ही स्वर्गलोक में महर्द्धिक देव हो गया।
जिनेन्द्र के पूजन का अचिन्त्य प्रभाव हैं। गृहाचार में समस्त परिणामों की विशुद्धता करनेवाला बड़ा शरण एक नित्य जिनपूजन करना ही है। जिनपूजन निर्धन भी कर सकता हैं, धनवान भी कर सकता हैं। जैसी अपनी सामर्थ्य हो उसी प्रकार पूजन सामग्री बना सकता है। पूजन करना, कराना, करनेवाले को भला जानना, वह सभी पूजन ही है। स्तवन-वंदना भी पूजन ही है, एक द्रव्य से भी पूजन होती हैं। अरहन्त के गुणों में भक्ति की उज्ज्वलता जितनी हो, जैसी हो, उतना ही, वैसा ही फल मिलता है।
जिनमंदिर में छत्र, चमर, सिंहासन, कलश, घण्टा इत्यादि स्वर्ण के, चाँदी के, पीतल के, कांसे के, ताम्बे के उपकरणों द्वारा जितनी अपनी सामर्थ्य हो उतना जिनमंदिर को सजाकर वैयावृत्य करे। जीर्ण मंदिरों की मरम्मत-उद्धार करना तथा धनवानों को जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा कराना, नया मंदिर बनवाना, कलश चढ़ाना – ये सभी अरहन्त की वैयावृत्य है। ___ जिनमंदिर की सम्हाल : जिनमंदिरों की टहल (सेवा) करना, कोमल बुहारी से यत्नाचारपूर्वक बुहारना, अभिषेक पूजन आदि के लिये जल लाना, सामग्री धोकर तैयार करना, पूजन-प्रक्षाल के वर्तन उपकरण मांजना, विछायत विछाना, गान-नृत्य-वादित्र आदि के द्वारा अरहन्त के गुण गाना-वह सब अर्हद् वैयावृत्य है। मन से, वचन से, काय से, धन से, विद्या से, कला से, जैसे अरहन्त के गुणों में अनुराग बढ़े वैसा करो। धन प्राप्त करने का, शरीर प्राप्त करने का, इंद्रियाँ पाने का , बल पाने का, ज्ञान पाने का सफलपना जिनमंदिर की टहलवैयावृत्य करके ही है।
जिन मंदिर की वैयावृत्य से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है, मिथ्याज्ञान मिथ्याश्रद्धान का अभाव होता है। जिनमंदिर की सेवा से ही स्वाध्याय, संयम, तप,
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