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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [२११ मणि ) अनेक प्रकार के पत्तों से भरपूर कल्पवृक्ष हैं, जिनके वैडूर्यमणिमय फल हैं तथा मूंगामयी डालियों से युक्त हैं। वहाँ ऐसे भोजनांग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं। उन चारों वनों में चार चैत्यवृक्ष हें । वे वृक्ष तीन पीठों के ऊपर हैं तथा तीन कोट सहित हैं। उन वृक्षों के शाखा, पत्ते, फूल, फल रत्नमयी हैं तथा ये चारों ही वनों के बीच में स्थित हैं। उन चार चैत्यवृक्षों की मूल में चारों दिशाओं में पल्यंकासन में, सिंहासन पर, छत्र, प्रातिहार्य आदि सहित चार जिनेन्द्र की प्रतिमायें हैं । नन्द आदि सोलह बावड़ी तीन कटनी सहित शोभित हो रही हैं। वन की भूमि में द्वारों से आने के मार्गरूप जो वीथी है उसके बीच में तीन कोट सहित तीन पीठों के ऊपर धर्म के वैभव सहित मस्तक पर चारों दिशाओं में चार जिनप्रतिमाओं को धारण किये मानस्तंभ हैं। श्री राजवार्तिक में कहा हैं - अकृत्रिम जिनालय की महिमा का वर्णन करने को हजार जिहवा द्वारा भी कोई समर्थ नहीं हैं; सहस्त्राक्ष इन्द्र एक हजार नेत्रों को फैलाकर निरंतर देखने पर भी तृप्त नहीं होता है। ऐसी असीम महिमा के धारक अकृत्रिम जिनालय का वर्णन त्रिलोकसार नामक ग्रंथ से यहाँ अपने शुभ ध्यान की सिद्धि के लिये किया है। इस प्रकार जिन पूजन का कथन किया। अब जिन पूजन के फल में प्रसिद्ध तो अनेक हुए हैं, तथापि पूर्वाचार्यों द्वारा जो प्रसिद्ध हुए हैं, उनको कहनेवाला श्लोक कहते हैं : अर्हच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवत्। भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ।। १२० ।। अर्थ :- राजगृह नाम के नगर में जिनेन्द्र को पूजने के हर्ष में मस्त अपनी सामर्थ्य को नहीं जाननेवाला एक मेंढ़क हुआ है, जिसने अरहन्त के चरणों की पूजा करने का महान प्रभाव जो भव्यजीव महापुरुष हैं उन्हें प्रगट करके दिखलाया हैं । उसकी कथा इस प्रकार है - मगधदेश में राजगृह नगर में राजा श्रेणिक राज्य करते थे। उसी नगर में एक नागदत्त नाम का सेठ तथा उसकी भवदत्ता नाम की सेठानी थी । वह सेठ आर्त्त परिणामों से मरकर अपने ही घर की बावड़ी में मेंढ़क के रूप में उत्पन्न हुआ । एक दिन भवदत्ता सेठानी अपनी बावड़ी पर गई । उसे देखकर मेंढ़क को अपने पूर्वभव का स्मरण हो गया, तथा पिछले जन्म के स्नेह को याद करके जोर से आवाज करता हुआ उछल-उछलकर सेठानी के कपड़ों के ऊपर चढ़ने लगा। तब सेठानी ने उसे बार-बार दूर फेंक दिया, तो भी वह मेंढ़क बार-बार सेठानी के कपड़ों पर चढ़ने का प्रयास करता रहा । सेठानी मेंढक को दूर फेंककर अपने घर चली गई। एक दिन सुव्रत नाम के अवधिज्ञानी मुनिराज से सेठानी ने पूछा हे स्वामी! मैं अपने घर की बावड़ी पर जाती हूँ तो वहाँ पर एक मेंढ़क जोर-जोर से आवाज करता हुआ बारबार मेरे शरीर के ऊपर आता हैं, इसका क्या कारण है ? तब मुनिराज ने कहा तुम्हारा पति नागदत्त आर्त परिणामों से मरकर मेंढक हुआ हैं । उसे जातिस्मरण - ज्ञान हुआ है, जिससे वह पूर्व जन्म के स्नेह के कारण तुम्हारे पास आता है। उसके बाद सेठानी ने मेंढ़क को अपने पति का जीव जानकर अपने घर में ले जाकर बहुत सन्मान पूर्वक रखा। - Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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