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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [२०७ पर चार, इष्वाकार के ऊपर चार, कुंडलगिरि के ऊपर चार, रुचकगिरि के ऊपर चार, नन्दीश्वर द्वीप में बावन – इस प्रकार मध्यलोक में चार सौ अट्ठावन अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। उर्ध्वलोक में स्वर्गों में – अहमिन्द्रलोक में चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस जिनमंदिर हैं। व्यन्तरों के असंख्यात जिनमंदिर हैं; ज्योतिर्लोक में भी ज्योतिषी देवों के असंख्यात जिनमंदिर हैं। इस प्रकार संख्यात जिनमंदिर तो आठ करोड़ छप्पन लाख सन्तानवे हजार चार सौ इक्यासी हैं। व्यन्तरों व ज्योतिषियों के असंख्यात जिनमंदिर हैं। जिनालयों का स्वरूप जिनालय तीन प्रकार के हैं – उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य। उनमें उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य जिन मंदिर का विस्तार निम्न प्रकार हैं :मंदिर उत्कृष्ट जघन्य मध्यम २५ यों. लम्बाई योजन में १०० यो. ५० यों. २५ यो. चौड़ाई योजन में ५० यो. १२ १/२ यो. ऊँचाई योजन में ७५ यो. ३७ १/२ यो. १८ ३/४ यो. इन जिनमंदिरों के तीन-तीन दरवाजे हैं। उनमें सामने की ओर से एक-एक बाजू से दो-दो द्वार हैं। कुल तीन-तीन द्वार हैं। जिन मंदिरों के दरवाजों का प्रमाण (नाप) इस प्रकार जानना - सामने का दरवाजा उत्कृष्ट जिनमंदिर मध्यम जिनमंदिर जघन्य जिनमंदिर १६ यो. ८ यो. ८ यो. ४ यो. ४ यो. २ यो. ऊँचाई चौड़ाई बाजू के दरवाजे ऊँचाई चौड़ाई यो २ यो. ८ यो. ४ यो. ४ यो. २ यो. १ यो. यहाँ भद्रशाल वन में, नंदन वन में, नंदीश्वर द्वीप में तथा स्वर्ग के विमानों में उत्कृष्ट प्रमाण वाले जिनालय हैं। सौमनस वन में, रुचक पर्वत पर, कुण्डलगिरि पर, वक्षारगिरि पर, इष्वाकार पर मानुषोत्तर पर, कुलाचलों पर, मध्यम प्रमाणवाले जिनमंदिर हैं। पांडुकवन के जिनालय जघन्य प्रमाणवाले हैं। विजयार्ध पर्वत के ऊपर, जम्बू–शाल्मलि वृक्षों में जिनमंदिर की लम्बाई एक कोस की हैं। शेष जो भवनवासी देवों के भवनों में, व्यंतरों के व ज्योतिषी देवों के जिनालय हैं वे यथा-योग्य लम्बाई प्रमाण हैं जितनी जिनेन्द्र भगवान ने देखी उतनी है। अब जिनमंदिरों का बाह्य परिकर कहते हैं। सभी जिनभवनों के चारों तरफ चार-चार द्वारों सहित मणिमयी तीन कोट हैं। द्वारों में से होकर जाने के लिये प्रत्येक रास्ते में एक-एक मान स्तम्भ है तथा ९–९ स्तूप हैं। तीनों कोटों के भीतर पहिले-दूसरे कोट की अन्तराल जगह में वन है, दूसरे Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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