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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
प्रतिमा के चिह्न - प्रतिमा के जो चिह्न होते हैं, वे इन्द्र जब बालक तीर्थंकर को जन्माभिषेक कराकर मेरु पर्वत से लाया था तब ध्वजा में जो चिह्न बना था वही चिह्न प्रतिमा की चरण चौकी में नाम आदि का व्यवहार चलाने के लिये बना दिया । एक अरहन्त परमात्मा, स्वरूप से एक रूप है, नाम आदि से अनेकरूप है। सत्यार्थ ज्ञान स्वभाव तथा रत्नत्रयरूप वीतरागभाव से पंच परमेष्ठी रूप सभी प्रतिमायें एक समान ही जाननी चाहिये। इसलिये परमागम की आज्ञा बिना व्यर्थ विकल्प नहीं करना, शंका उत्पन्न करना ठीक नहीं है। जिनसूत्र की आज्ञा ही प्रमाण है।
पूजन के पाँच अंग - व्यवहार में पूजन के पांच अंगों की प्रवृत्ति दिखाई देती है आहवान १, स्थापना २, सन्निधिकरण ३, पूजन ४, विसर्जन ५। भावों को जोड़ने के लिये आह्वान में पुष्प क्षेपण करते हैं। पुष्पों को प्रतिमा नहीं जानते हैं। यह तो आह्वान आदि के संकल्प से पुष्पांजलि क्षेपण है। पूजन में पाठ लिखा हो तो स्थापना कर लेना चाहिये, नहीं लिखा हो तो नहीं करना चाहिये । अनेकांती के सर्वथा पक्ष नहीं होता हैं ।
भगवान् परमात्मा तो सिद्धलोक में हैं, अपने स्थान से एक प्रदेश भी नहीं चलते हैं, परन्तु तदाकार प्रतिबिम्ब से ध्यान जोड़ने के लिये साक्षात् अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, एवं साधु के रूप का प्रतिमा में निश्चय करके प्रतिबिम्ब का ध्यान, पूजन, स्तवन करना चाहिये । कितने ही पक्षपाती कहते हैं भगवान के प्रतिबिम्ब बिना सभी के श्रोताओं के बीच में हजूरी पद, विनय पद, स्तोत्र पाठ नहीं पढ़ना चाहिये। उनसे कहते हैं भगवान परमेष्ठी का ध्यान-स्तवन तो सदा काल परमेष्ठी को अपने ध्यान गोचर करके पढ़ना-स्तवन करना योग्य है । यदि प्रतिमा के सन्मुख - बिना स्तुति पढ़ने का, विनयपद पढ़ने का निषेध करोगे तो उनका पंचनमस्कार मंत्र पढ़ना, स्तवन करना - पढ़ना, सामायिक वंदना का पढ़ना, प्रतिमा के सन्मुख हुए बिना नहीं संभव होगा। शास्त्र के प्रवचन व्याख्यान में भी नमस्कार के श्लोक पढ़ने का निषेध हो जायगा। इसलिये अज्ञानी के कहने से अध्यात्म से पराङ्मुख होना कभी योग्य नहीं है।
अकृत्रिम जिन चैत्यालय वर्णन
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यहाँ प्रकरण पाकर ध्यान की शुद्धि के लिये अकृत्रिम जिन चैत्यालयों का स्वरूप श्री त्रिलोकसारजी ग्रन्थ के अनुसार कुछ लिखते हैं।
अधोलोक में सात करोड़ बहत्तरलाख भवनवासी देवों के भवन हैं। उनमें कितने ही भवन तो असंख्यात योजन विस्तारवाले हैं, कितने ही संख्यात योजन विस्तारवाले हैं। उनमें से प्रत्येक भवन में एक-एक जिनमंदिर हैं। जिनकी असंख्यात भवनवासी देव वंदना करते हैं। इस प्रकार सात करोड़ बहत्तर लाख ही जिनमंदिर हैं।
मध्य लोक में पाँच मेरुओं पर अस्सी जिनमंदिर हैं, गजदंतों पर बीस जिनमंदिर हैं, कुलाचलों पर तीस, विजयाद्धों पर एक सौ सत्तर, देव कुरु उत्तर कुरु में दश, वक्षारगिरि में अस्सी, मानुषोत्तर
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