SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [२०५ यदि आप कहोगे - जहाँ बहुत प्रतिमायें हो वहाँ चौबीसों का स्तवन करेंगे। यदि वहाँ बीस ही प्रतिमायें हों या बाईस - तेईस हों तो पहले एक का चिह्न का अच्छी तरह से निर्णय करके उसी का स्तवन किया जायगा, अन्य तीर्थंकरों का स्तवन रह जायेगा । जहाँ प्रतिमा छोटी हो, दूरी पर विराजमान हो, दर्शन करनेवाले की दृष्टि मंद हो, वहाँ पाँच लोगों से पूँछकर स्तवनवंदना करना हो सकेगा इस प्रकार एकान्ती मनोक्त कल्पना करनेवाले के अनेक दोष आते हैं। जो स्थापना के पक्षपाती स्थापना किये बिना प्रतिमा की पूजन नहीं करते हैं, तो उनकी मान्यता के अनुसार प्रतिमा के स्तवन कराने की भी योग्यता नहीं रही ? यदि पीले चावलों की अतदाकार स्थापना ही पूज्य है तो उन पक्षपातियों को धातु - पाषाण की तदाकार प्रतिबिम्ब की स्थापना करना निरर्थक है ? अकृत्रिम चैत्यालयों के प्रतिबिम्ब जो अनादि निधन स्थापित हैं उनमें भी पूज्यपना नहीं रहा ? एक प्रतिमा के आगे एक का ही पूजन करना, अन्य तेईस की पूजन करना हो तो पीले अक्षतों में स्थापना करके कर लेना । उससे कहते हैं तब तेईस प्रतिमाओं का संकल्प पीले अक्षतों में ही हुआ; तथा जयमाला, स्तुति, पूजन आदि करते हुए अपनी दृष्टि पीले अक्षतों में ही रखनी चाहिये। एक प्रतिमा में चौबीस का भाव अयोग्य ठहरेगा ? तेईस की प्रतिमा तो स्थापना के पुष्पों में ही रही? - स्थापना बिना पूजन नहीं करना चाहिये तो घर में, वन में, विदेश में अरहन्तों का स्तवन-वंदन ही संभव नहीं होगा ? जो एकान्ती आगमज्ञान रहित पक्षपाती हैं उनके कहने का कुछ ठिकाना (विश्वास) नहीं हैं, उन्हें पाप का भय नहीं है। वे पूजन तो चौबीस की करते हैं, शान्तिपाठ में सोलहवें तीर्थंकर का स्तवन करते हैं ? इसलिये अनेकान्त की शरण पाकर आगम की आज्ञा बिना पक्ष का एकान्त करना ठीक नहीं है । - यहाँ ऐसा विशेष समझना - एक तीर्थंकर के नाम के शब्द के ही व्याकरण में निरुक्ति द्वारा अर्थ करने पर चौबीसों तीर्थंकरों के नाम का अर्थ करना संभव है। सौधर्म इन्द्र ने एक हजार आठ नामों द्वारा एक तीर्थंकर का स्तवन किया है। एक तीर्थंकर के गुणों द्वारा असंख्यात नाम वाले अनंत तीर्थंकरों का स्तवन किया जाना संभव है। अनंतकाल में असंख्यात नामवाले अनंत तीर्थंकर हो गये हैं । अतः एक तीर्थंकर के स्तवन द्वारा उन सभी का तथा चौबीस का स्तवन किया जा सकता है । उनके माता-पिता के भी ऐसे ही नाम, शरीर की अवगाहना, वर्ण आदि भी; ऐसे ही अनंतकाल में अनंत हो गये हैं । इसलिये एक ही तीर्थंकर में एक का संकल्प तथा चौबीस का भी संकल्प कर लेना संभव है। इसकाल में अन्यमतवालों की भी अनेक प्रकार की स्थापना होने लगी है। इसलिये इसकाल में तदाकार स्थापना की ही मुख्यता है । यदि अतदाकर स्थापना की ही प्रधानता हो जायेगी तो चाहे जो चाहे - जिसमें तथा अन्यमती की प्रतिमा में भी अरहन्त की स्थापना का संकल्प करने लगेंगे तो मार्ग से भ्रष्ट हो जायेंगे । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy