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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२०४]
हो वह स्थापना सहित पूजन करें; जिसके सप्त व्यसन का, अन्याय का, अभक्ष्य का त्याग नहीं हो वह स्थापना नहीं करे। स्थापना सहित पूजन तो सप्त व्यसन का, अन्याय का, अभक्ष्य का त्याग करनेवाला ही करे। जिसके इनका त्याग नहीं हो, वह स्थापना किये बिना ही पूजन कर ले, स्थापना नहीं करे। स्त्रियों को यदि रंगीन वस्त्र पहने हों तो स्थापना किये बिना ही पूजन करना कहते हैं ?
ऐसा कहने वालों के साक्षात् जिनेन्द्र के प्रतिबिम्ब का सम्मान नहीं रहा, अतदाकार चांवलों की स्थापना की ही विनय करना रहा। प्रतिबिम्ब की विनय करना मुख्य नहीं रहा। प्रतिमा का पूजन, वंदन, स्तवन तो जो भी चाहे वह कर सकता है, किन्तु पीले चावलों में स्थापना तो वही कर सकता है जो उत्तम हो, व्यसन, अन्याय अभक्ष्यादि पापरहित हो; किन्तु इस प्रकार तो पीले अक्षतों में स्थापना करना मुख्य विनय योग्य हो गया, तथा प्रतिमा में पूजन आदि विनय करना गौण हो गया ? ___ पक्षपाती और भी कहते हैं - जिस तीर्थंकर की प्रतिमा हो उनके आगे उन्हीं की पूजा, स्तुति, भक्ति करना चाहिये; अन्य तीर्थकर की स्तुति-भक्ति नहीं करना चाहिये। यदि अन्य तीर्थकर की पूजा करना हो तो तंदुलों में अन्य तीर्थकर की स्थापना करके पूजन-स्तवन करना, ऐसा पक्षपात करते हैं।
उन्हें इस प्रकार तो विचार करना चाहिये - समन्तभद्र स्वामी ने शिवकोटि राजा के सामने प्रत्यक्ष देखते हुए स्वयंभू स्तोत्र द्वारा स्तवन किया था, तब चन्द्रप्रभु स्वामी की प्रतिमा प्रगट हुई थी। तो उस समय उन्होंने चंद्रप्रभु के सामने अन्य सोलह तीर्थंकरों का स्तवन कैसे किया ? यदि एक प्रतिमा के पास एक ही का स्तवन पढ़ना उचित है तो स्वयंभूस्तोत्र का मंदिर में पढ़ना ही संभव नहीं रहेगा; आदिनाथ जिनेन्द्र की प्रतिमा के बिना भक्तामर स्तोत्र का पढ़ना नहीं बन सकेगा; पार्श्वनाथ जिनेन्द्र की प्रतिमा के बिना कल्याण मंदिर स्तोत्र का पढ़ना नहीं बन सकेगा; पंच परमेष्ठी की प्रतिमा की स्थापना के बिना पंचनमस्कार मंत्र कैसे पढ़ा जायगा ? कायोत्सर्ग, जाप करना आदि भी नहीं बनेगा।
पंच परमेष्ठी की प्रतिमा के बिना उनका नाम लेना, जाप करना, सामायिक करना, संभव नहीं होगा। अन्य देश में अनजाने मंदिर में पहले प्रतिमा का निश्चय किये बिना स्तुति पढ़ना नहीं बनेगा। यदि रात्रि का समय हो, व छोटी अवगाहना की प्रतिमा हो तो वहाँ पहिले चिह्न का निश्चय करे पश्चात् स्तवन में प्रवर्तन हो सकेगा।
जिस मंदिर में अनेक प्रतिमायें हो वहाँ जिसका स्तवन करे उसी के सामने हाथ जोड़कर, नजर एकाग्र करके, विनती करना हो सकेगा, अन्य प्रतिमा के सम्मुख नहीं हो सकेगा। जिस मंदिर में अनेक प्रतिमायें हों वहाँ यदि एक प्रतिमा का स्तवन-वंदन किया तो दूसरी प्रतिमा का निरादर हो जायेगा। दूसरी का वंदन किया तो तीसरी चौथी पाँचवी आदि का भावों में निरादर हो गया, तब भक्ति ही समझो।
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